मुद्दा : ऐसे लोग सर्दी से नहीं मरते

Last Updated 09 Jan 2025 12:43:39 PM IST

नया साल शुरू हो चुका है, और उससे पहले शुरू हो गई कंपकंपा देने वाली सर्दी। इस समय भी देश के विभिन्न इलाकों में शीत लहर कहर बरपा रही है, जिससे हर साल की तरह देश के विभिन्न इलाकों से लोगों के मरने की खबरें भी आ रही हैं।


मुद्दा : ऐसे लोग सर्दी से नहीं मरते

अब तक 150 से ज्यादा लोग सर्दी की ठिठुरन से मौत की नींद सो चुके हैं। वैसे इस तरह की खबरें आना कोई नई बात नहीं है। कहीं भूख और कुपोषण से होने वाली मौतें तो कहीं गरीबी और कर्ज के बोझ से त्रस्त किसानों और छोटे कारोबारियों की खुदकुशी के जारी सिलसिले के बीच हर साल ही सर्दी की ठिठुरन, गरम लू के थपेड़ों और बारिश-बाढ़ से भी लोग मरते ही रहते हैं।  
मौसम की अति के चलते असमय होने वाली ये मौतें हमारे उस भारत की नग्न सच्चाइयां हैं, जिसके बारे में दावा किया जाता है कि वह तेजी से विकास कर रहा है, और जल्द ही दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा। ये सच्चाइयां सिर्फ हमारी सरकारों के हवा-हवाई कार्यक्रमों और पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हो जाने जैसे गुलाबी दावों की ही खिल्ली नहीं उड़ातीं, बल्कि व्यवस्था पर काबिज लोगों की नालायकी और संवेदनहीनता को भी उजागर करती हैं।

वैसे, सर्दी हमारे नियमित मौसम चक्र का ही हिस्सा है। कड़ाके की सर्दी इसका हल्का सा विचलन भर है। सर्दी और भीषण सर्दी अंत में हमें कई तरह से फायदे ही पहुंचाती हैं। सबसे बड़ी बात है कि कड़ाके की सर्दी हमें आस्त करती है कि ग्लोबल वार्मिग उतनी सन्निकट नहीं है, जितना कि अक्सर हम मान बैठते हैं।  ज्यादातर भारतीय इस मायने में खुशनसीब हैं कि उन्हें मौसम की विविधताएं देखने को मिलती हैं। अन्यथा दुनिया में ऐसे कम ही इलाके हैं, जहां हर मौसम का मजा लिया जा सके। हर मौसम अपने रौद्र रूप में भी सुंदर होता है, बशर्ते उसकी मार से लोगों को बचाने के इंतजामात हो।

दुनिया में संभवत: भारत ही ऐसा एकमात्र देश है, जहां हर मौसम की अति होने पर लोगों के मरने की खबरें आने लगती हैं। लेकिन हकीकत यह भी है कि लोग मौसम की अति से नहीं मरते हैं, वे मरते हैं अपनी गरीबी से, अपनी साधनहीनता से और व्यवस्था तंत्र की नाकामी या लापरवाही की वजह से। यूरोप के देशों में सरकारें मौसम की अति का मुकाबला करने के चाक-चौबंद इंतजाम करती हैं, इसलिए वहां लोग हर मौसम का तरह-तरह से लुत्फ उठाते हैं। हमारे देश में भी खाया-अघाया तबका ऐसा ही करता है, जिसके पास हर मौसम की अति का सामना करने और उसका लुत्फ उठाने के पर्याप्त साधन हैं।  

भारत के ज्यादातर हिस्सों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती, लेकिन हमारे यहां जब हिमालय परिवार की पहाड़ियों पर गिरने वाली बर्फ से मैदानी इलाकों में शीत लहर चलती है, तो देश के विभिन्न इलाकों में सर्दी की ठिठुरन से होने वाली मौतों के आंकड़े आने लगते हैं।  

हकीकत यह है कि अगर समूचे भारत के आंकड़े इकट्ठे किए जाएं तो हर साल सर्दी से मरने वालों की संख्या हजारों में पहुंचती है। ज्यादातर मौतें बड़े शहरों और महानगरों में होती हैं। जो मरते हैं, उनमें से ज्यादातर बेघर होते हैं।  ऐसे लोग काम की तलाश में दूरदराज के इलाकों से बड़े शहरों या महानगरों में जाते हैं, ताकि मेहनत-मजदूरी कर अपने परिवार के जिंदा रह सकने लायक कुछ कमा सकें। इनमें कोई साइकिल रिक्शा चलाते हैं, कोई रेस्तरांओं और ढाबों में काम करते हैं, तो कोई किसी और काम में लग जाते हैं। लेकिन चूंकि ऐसे लोगों के पास रहने के लिए अपना कोई ठिकाना नहीं होता है, इसलिए खुले आसमान के नीचे रात गुजारना उनकी मजबूरी होती है।

गरमी या दूसरे मौसम में तो किसी तरह उनकी रातें कट जाती हैं, लेकिन कड़ाके की शीत लहर में एक रात भी सुरक्षित बीत जाने पर वे असीम राहत महसूस करते हैं। अगर वे सर्दीजनित किसी बीमारी की चपेट में आ जाते हैं, तो उनके पास इतने पैसे भी नहीं होते हैं  कि अपना इलाज करा सकें। सर्दी के दिनों में ऐसे जानलेवा हालात का सामना करने वाले लोगों की तादाद लाखों में होती है। सवाल यह है कि अगर इन लोगों के सामने साधनहीनता एक लाचारी है, तो कल्याणकारी मूल्यों पर चलने का दावा करने वाली सरकारों की क्या कोई जिम्मेदारी बनती है कि नहीं?

दरअसल, शहरी और अर्धशहरी इलाकों में मौसम की मार से लोगों के मरने के पीछे सबसे बड़ी वजह है शहरी नियोजन में सरकारी तंत्र की अदूरदर्शिता। जब से आवासीय कॉलोनियों की बसावट के मामले में विकास प्राधिकरणों और गृह निर्माण मंडलों की बजाय निजी भवन निर्माताओं और कॉलोनाइजरों का दखल बढ़ा है, तब से रोज कमा कर रोज खाने वालों और बेघर लोगों के लिए आवासीय योजनाएं हाशिए पर खिसकती गई हैं। करोड़ों लोग आज भी फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर या टाट और प्लास्टिक आदि से बनी झोपड़ियों में रात बिताते हैं। बहुत से लोगों के पास तो पहनने को गरम कपड़े या ओढ़ने को रजाई-कंबल तो दूर तापने को सूखी लकड़ियां तक उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे लोगों को मौसम की मार से बचाने के लिए अदालतें हर साल सरकारों और स्थानीय निकायों को लताड़ती रहती हैं, लेकिन सरकारी तंत्र की मोटी चमड़ी पर ऐसी लताड़ों का कोई असर नहीं होता है।

शीत लहर, बाढ़ और भीषण गरमी जैसी प्राकृतिक आपदाएं कोई नई परिघटना नहीं हैं। ये तो पहले से आती रही हैं, और आगे भी आती रहेंगी। इन्हें रोका नहीं जा सकता। रोका जा सकता है, तो इनसे होने वाली जान-माल की तबाही को, जो सिर्फ  राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र की ईमानदार इच्छाशक्ति से ही संभव है। ताजा शीत लहर और उससे होने वाली मौतें हमें बता रही हैं कि जब मौसम के हल्के से विचलन का सामना करने तक की हमारी तैयारी नहीं है, और हमारी व्यवस्थाएं पंगु बनी हुई हैं, तो जब ग्लोबल वार्मिग जैसी चुनौती हमारे सामने होगी तो उसका मुकाबला हम कैसे करेंगे?

(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

अनिल जैन


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