कांग्रेस : क्षेत्रीय दल कर रहे अनदेखी
दिल्ली विधानसभा चुनाव के दस्तक देते ही विपक्षी एकता एक बार फिर से कटी पतंग जैसी हो गई है, जो कभी इस दीवार और कभी उस स्तंभ से टकरा कर लुटी-पिटी सी नये तारणहार की राह देख रही है।
कांग्रेस : क्षेत्रीय दल कर रहे अनदेखी |
आम आदमी पार्टी (आप) के अगुवा अरविंद केजरीवाल ने साफ ऐलान कर दिया है कि उनकी पार्टी आने वाले साल में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में किसी दूसरी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी। सभी 70 सीटों पर खुद उम्मीदवार उतारेगी। मजबूरी में कांग्रेस नेताओं को भी सभी सीटों पर प्रत्याशी देने की घोषणा करनी पड़ी है।
संसद से लेकर सड़क तक भाजपा या भाजपा-नीत केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ कांग्रेस और आप कदमताल करती हुई दिखाई तो पड़ती हैं, लेकिन चुनाव आते ही दोनों की राहें जुदा हो जाती हैं। आप के रणनीतिकारों का मानना है कि भाजपा और केंद्र सरकार के खिलाफ भिड़ने में एकता के मोर्चे पर दोनों के साथ आने से जनता में माहौल बन तो जाता है, लेकिन चुनावी तालमेल करने से आप को कोई खास फायदा नहीं मिल पाता।
इस बार भी आप को डर है कि कांग्रेस का आधार वोट आप को ट्रांसफर होने की बजाय कहीं भाजपा को फायदा न पहुंचा दे। वैसे भी पिछले चुनाव के आंकड़े यही बता रहे हैं कि दिल्ली में कांग्रेस का जनाधार लगातार कमजोर होता जा रहा है। 2024 के लोक सभा चुनाव में दिल्ली में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। भाजपा सभी सात सीटें जीत गई। आप भी खाली हाथ रही। 2019 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को 23 फीसद वोट मिलने के बावजूद एक भी सीट नहीं मिली थी। 2014 के लोक सभा चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी 15 फीसद वोट पाने के बावजूद एक भी सीट नहीं जीत पाई थी।
अलबत्ता, 2009 में कांग्रेस दिल्ली की सातों लोक सभा सीट जीतने में कामयाब हुई थी, साथ ही वोटों की 57 फीसद हिस्सेदारी भी उसने हासिल की थी। इस तरह कांग्रेस के वोटों का यह छीजन आप को डूबती नैया पर सवार होने जैसा लग रहा है। 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सफाये के बाद भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए आप और कांग्रेस ने मिल कर सरकार बनाई थी। परंतु यह सरकार 49 दिनों तक ही चल सकी। बाद में 2015 में आप खुद की बदौलत सत्ता में आई और कांग्रेस 2015 और 2020, दोनों विधानसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं जीत सकी। अब तो आप को दिल्ली में कांग्रेस टक्कर में ही नहीं दिखती। साफ है कि आप अपना मुख्य मुकाबला भाजपा के साथ मान रही है, और अपनी बदौलत कांग्रेस को जीवन दान देने से परहेज कर रही है।
दूसरे दल भी कांग्रेस का साथ देने को घाटे का सौदा मान रहे हैं। कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से परहेज कर रहे हैं। हालांकि एक बड़ा गठबंधन इंडी अलायंस के रूप में बना जरूर है, लेकिन यह प्रभाव छोड़ता नहीं दिखलाई पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि आप ने पहली बार कांग्रेस को ठेंगा दिखाया है, बल्कि इससे पहले भी पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन किए बिना चुनाव जीत कर और वहां यह सरकार बना कर दिखा चुकी है।
इस मामले में कांग्रेस भी दूध की धोई नहीं है, बल्कि लोक सभा चुनाव के तुरंत बाद हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में खुद को सरकार में आना तय मान कर कांग्रेस के नेता आप से गठबंधन के विरोध में लगातार बयान देते रहे। आखिरकार, दोनों पार्टयिों में गठबंधन नहीं हो सका और दोनों ही पार्टयिां सत्ता में नहीं आ सकीं। इस तरह की स्थिति पहले गुजरात समेत दूसरे कई राज्यों के चुनावों में भी रही है। दोनों पार्टयिों को सीटों का तालमेल नहीं होने का खमियाजा उठाना पड़ता रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस और आप, दोनों के अपने-अपने पूर्वाग्रह हैं। आप मान कर चलती है कि कांग्रेस का देश में कहीं कोई जनाधार नहीं है, या तो वह क्षेत्रीय दलों की बैसाखी पर चल रही है, या फिर उसे नाराज वोटों का फायदा मिल जाता है।
बिहार विधानसभा चुनाव लगभग 10 महीने बाद हैं। लेकिन अभी से ही कांग्रेस के नेता अपने आला कमान की जगह राजद सुप्रीमो की चौखट पर ज्यादा माथा टेक रहे हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है कि विधानसभा चुनाव की वैतरणी लालू-तेजस्वी के बिना पार नहीं हो सकते। कांग्रेस की ओर से पूर्णिया लोक सभा सीट से पप्पू यादव को उतारने की पूरी तैयारी के बावजूद राजद की हरी झंडी नहीं मिलने के कारण कांग्रेस उन्हें टिकट नहीं दे सकी। आखिरकार, पप्पू जीते लेकिन निर्दलीय सांसद के तौर पर। कांग्रेस पार्टी के एक कार्यक्रम में तो लालू प्रसाद ने बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश सिंह के बारे में साफ तौर पर कहा कि उन्हें राज्य सभा सदस्य कांग्रेस ने नहीं, बल्कि राजद ने बनाया है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) की ओर से भी बार-बार गठबंधन तोड़ देने की चेतावनी दी जाती रहती है। कुछ और भी प्रदेशों में क्षेत्रीय दल कांग्रेस को अपने जूनियर पार्टनर के तौर पर भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। आखिर, इन हालात में कांग्रेस जाए तो जाए कहां? लंबे समय तक देश पर राज करने और अधिकतर राज्यों में सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस की यह स्थिति एक दिन में नहीं बनी है। कांग्रेस के वोट बैंक के तीन मुख्य आधार-दलित, मुस्लिम और सवर्ण-उसके हाथ से पूरी तरह से निकल चुके हैं। ऐसी स्थिति में क्षेत्रीय दलों की बदौलत अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना कांग्रेस की मजबूरी बन चुकी है। ऐसे में नीतिगत विकल्प देकर व्यापक पहलकदमी करना और संघर्ष के रास्ते नई पहचान बना कर नये सिरे से जनाधार तैयार करने का रास्ता ही कांग्रेस के पास बच रहता है।
(लेख में विचार निजी हैं)
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