बहराइच हिंसा : सच को स्वीकारें
बहराइच सांप्रदायिक हत्याकांड (Bahraich communal massacre) के आरोपियों के मुठभेड़ पर जिस त्वरित गति से तीखी प्रतिक्रिया आई उसका शतांश भी रामगोपाल मिश्रा की हत्या और उसके साथ हुई बर्बरता पर नहीं देखी गई।
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यह भारतीय राजनीति, बौद्धिक जगत और एक्टिविज्म की दुनिया की ऐसी ट्रेजेडी है जिसकी समानता इतिहास में ढूंढनी मुश्किल हो जाएगी। पुलिस मुठभेड़ में दो आरोपियों के पैर में ही गोली लगी। पुलिस के हर मुठभेड़ को झूठ और गैरकानूनी हत्या या गोली मारना बताने वाले नेता व एक्टिविस्ट इतनी भी संवेदनशीलता नहीं बरत पाए कि वे गोपाल मिश्रा के साथ हुई बर्बरता की निंदा करते।
समूचे देश में भाजपा विरोधी आम नेताओं, पार्टयिों, मुस्लिम नेताओं, बुद्धिजीवियों, नामी मौलानाओं, इमामों, संस्थानों के प्रमुखों सबके बयानों को खंगाल लीजिए, आपको शायद ही कहीं रामगोपाल मिश्रा की हत्या व नृशंसता की आलोचना में एक शब्द मिल जाए। ठीक इसके विपरीत दुर्गा प्रतिमा विसर्जन और उसमें शामिल लोगों के व्यवहार, डीजे से निकलते गानों आदि की आक्रामक आलोचना और निंदा की भरमार मिलेगी। पूरा इको सिस्टम और नैरेटिव ऐसा बनाया गया मानो प्रतिमा विसर्जन करने निकले लोग ही दोषी हैं, उन्होंने उकसाया, जबरन घर पर चढ़कर हरे झंडे उतारे और उधर से केवल प्रतिक्रिया हुई। जिन लोगों ने आरंभ में चुप्पी साधी वे भी मुठभेड़ के बाद इसी तरह का नैरेटिव लेकर आ गए हैं। यह हतप्रभ करने वाली स्थिति है।
टीवी डिबेट में पूछने पर अवश्य बोलेंगे कि हत्या गलत है पर-किंतु-परंतु लगाते हुए प्रतिमा विसर्जन में शामिल लोगों को ही दोषी साबित करने के लिए सारे तर्क हैं। कोई भी साहस के साथ यह सच बोलने को तैयार नहीं है कि पिछले कुछ वर्षो से लगातार हिंदू पर्व-त्योहारों ,उत्सवों, दिवसों की शोभायात्राओं या प्रतिमा विसर्जन के लिए चलते जन समूह पर जगह-जगह हमले क्यों बढ़ रहे हैं? दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को लेकर ही समाचार पत्रों की रिपोर्ट में ऐसी दो लगभग दो दर्जन घटनाएं आ चुकी है जहां उन पर पत्थरबाजी हुई, पत्थर बरसाए गए, कहीं रोकने की कोशिश हुई तो मार-पिटाई तो कहीं मूर्ति। अजमेर दरगाह के सरफराज चिश्ती ने भड़काऊ बयान देते हुए कह दिया कि न्यूटन की गति के नियमानुसार क्रिया की प्रतिक्रिया होगी। आप उकसाने वाले नारे लगाएंगे, डीजे में वैसे गाने बजाएंगे और घर पर चढ़कर झंडा उतारेंगे तो आप पर फूल नहीं बरसाए जाएंगे। यह अकेला बयान नहीं है।
पूरे प्रकरण का आप मूल्यांकन करें तो निष्कर्ष आएगा कि जिम्मेवार और सम्मानित स्थान पर बैठे मजहबी व्यक्तित्व और नेता ऐसे बयान दे रहे हैं उससे समुदाय के अंदर उग्रता और असहिष्णुता बढ़ने का खतरा है। दुर्भाग्य से भाजपा, नरेन्द्र मोदी सरकार, उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार अन्य राज्यों की भाजपा विरोध में राजनीति करने वाले नेताओं और पार्टयिों का स्वर घोषित-अघोषित इनका समर्थन देने वाला है। हर मुठभेड़ की जांच मजिस्ट्रेट स्तर पर होती है और इसका भी होगा। योगी आदित्यनाथ सरकार के मुठभेड़ों की तुलना पिछली सरकारों से करें तो जांच रिपोर्ट और न्यायालयों के आदेश के अनुसार रिकॉर्ड बेहतर है। सबसे ज्यादा फर्जी मुठभेड़ का रिकॉर्ड अखिलेश यादव के शासन (2015) के दौरान का ही है। किंतु बहराइच हिंसा के मामले में इस पहलू को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बढ़ाकर हमला करने वाले वास्तव में मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं।
आखिर प्रतिमाओं के विसर्जन का रूट पहले से तय था, वीडियो बता रहे हैं कि घटनास्थल के पास गेट व झंडे लगे थे। साफ है कि यह पुलिस की अनुमति से हुआ था। हर शहर और गांव में बरसों से प्रतिमा विसर्जन के रास्ते निश्चित हैं। इस तरह की घटना होनी नहीं चाहिए। बहराइच पुलिस प्रशासन की भयानक विफलता बिल्कुल स्पष्ट है। पर्याप्त मात्रा में सतर्क पुलिस बल होता तो घटना को रोका जा सकता था। जितने विवरण सामने आए हैं उनके अनुसार डीजे बजाने को लेकर विवाद किया गया, दूसरे पक्ष ने बंद करने को कहा जबकि स्वाभाविक ही विसर्जन यात्रा के लोगों ने स्वीकार नहीं किया, गाली-गलौज, धक्का- मुक्की हुई, दुर्गा प्रतिमा भी खंडित की गई तथा कुछ भगवे झंडे उतारे गए। रामगोपाल मिश्रा इसी गुस्से में कुछ साथियों के साथ उस घर की छत पर चढ़ गया जिसके कारण बाउंड्री का भाग गिरा तथा झंडा उतारने लगा। निश्चित रूप से घर पर झंडा उतारने की प्रतिक्रिया गलत है और अस्वीकार्य है। साफ है कि पुलिस का कारगर हस्तक्षेप होता तो विवाद आगे बढ़ता नहीं। समाचार पत्रों की रिपोर्ट बताती है कि अंतत: पुलिस ने प्रतिमा विसर्जन में शामिल लोगों पर ही लाठियां चलाई जिससे लोग भागे तथा रामगोपाल अकेले फंस गया। इस दृष्टि से उसकी हत्या और साथ हुई बर्बरता का दोषी बहराइच पुलिस भी है।
दूसरी ओर यह भी देखिए, अगर परिवार के अंदर कानून-व्यवस्था का सम्मान होता तो वह कम-से-कम रामगोपाल को पुलिस के हवाले करता। इसकी जगह बेरहम पिटाई, बर्बरता हुई और फिर गोली मारी गई। यह बगैर मजहबी जुनून और नफरत के संभव ही नहीं है। पोस्टोमार्टम रिपोर्ट में रामगोपाल की मृत्यु का कारण गोली लगना है। किंतु पोस्टमार्टम करने वाले डॉ. संजय शर्मा का बयान है कि उनके पैरों के अंगूठे के नाखूनों के भाग नहीं थे, आंख के ऊपर नुकीले चीजों से वार था। शरीर पर स्वाभाविक ही अलग-अलग चोट के निशान थे। यानी हत्या से पहले उसकी निर्मम पिटाई की गई। यह समझ से परे है कि आखिर किसी भी धर्मस्थल या घर के बाहर से दूसरे धर्म की यात्राओं के गुजरने, नारे लगने, गाना बजने, झूमने, नाचने का विरोध या उसके विरुद्ध हिंसा क्यों हो सकती है?
अगर हिंदू धर्मस्थलों के सामने से मुसलमान के जुलूस पर आपत्ति हो और मुसलमान के घरों और धर्मस्थलों से हिंदुओं के जुलूस पर तो इससे बुरी स्थिति नहीं हो सकती। सच है कि हिंदुओं के क्षेत्र से गुजरने वाली मुस्लिम यात्राएं बाधित नहीं होती और न उन पर पत्थर चलते हैं, न ही हिंसा होती है। ज्यादातर हिंसा हिंदुओं की शोभायात्राओं या जुलूसों के विरु द्ध ही हो रहे हैं। यह सामान्य स्थिति नहीं है। राजनीतिक तौर पर भाजपा और संघ परिवार के विरोध में देश को मजहबी जुनून की आग में झोंकने का अपराध भविष्य में सबके लिए आत्मघाती साबित होगा।
(लेख में विचार निजी हैं)
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