बिहार में बाढ़ : अभिशाप से मुक्ति कब

Last Updated 12 Oct 2024 01:41:27 PM IST

बिहार प्रति वर्ष बाढ़ से तबाही झेलने को मानो अभिशप्त है। त्योहारों की प्रतीक्षा की ही तरह प्रति वर्ष बिहार के लोग बाढ़ का भी डरते हुए इंतजार ही किया करते हैं कि मानसून आया और बस, अब बाढ़ भी आएगी ही।


फिर तैयारी शुरू हो जाती है कि बाढ़ विकराल रूप धारण करेगी और लोग अपने घरों को छोड़ कर सुरक्षित ठिकानों की तरफ पलायन को मजबूर हो जाएंगे। हर साल बिहार बाढ़ की विभीषिका का दंश इस उम्मीद में झेलता है कि शायद अगले आने वाले वर्षो में उसे इस विभीषिका से कोई राहत मिल जाएगी क्योंकि हर बार राहत सामग्री के साथ-साथ उसे आासन भी मिलता है कि बस, इस वर्ष के बाद आपके दु:ख का समाधान कर दिया जाएगा। पीढ़ियां गुजर गई लेकिन बाढ़ की समस्या जस की तस ही रही।

दरअसल, बिहार भारत के सर्वाधिक बाढ़ प्रभावित राज्यों में आता है। देश के बाढ़ प्रभावित कुल क्षेत्र का 16.5 प्रतिशत क्षेत्र बिहार में ही है। आबादी के हिसाब से देश की बाढ़ प्रभावित आबादी का 22.1 प्रतिशत हिस्सा बिहार में ही निवास करता है। बिहार के 38 जिलों में से 28 जिले किसी न किसी रूप में बाढ़ से प्रभावित हैं। गंगा नदी बिहार के बीच से बहती है और बिहार को दो भागों में विभाजित करती है। उत्तर बिहार में मुख्य रूप से पांच नदियां कोसी, महानंदा, बागमती, बूढ़ी गंडक और गंडक हैं, जो उत्तर बिहार में बाढ़ की विभीषिका लाती हैं तो वहीं दक्षिण बिहार में सोन, पुनपुन और फल्गु नदी बाढ़ लाती हैं।

गंगा नदी तो स्वयं ही बहुत बड़ी और सर्वाधिक प्रमुख नदी है। अधिकतर नदियां आकर गंगा नदी में ही मिल जाती है जिससे गंगा का जलस्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है। फलस्वरूप गंगा का पानी बहुत अधिक क्षेत्रों में फैल जाता है। इस प्रकार भौगोलिक क्षेत्रफल के हिसाब से बिहार का 73.06 प्रतिशत अर्थात 68,800 वर्ग किमी. क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित हो जाता है। बिहार में 36 हजार वर्ग किमी. से ज्यादा क्षेत्र में नदियां फैली हुई हैं। बिहार की सभी नदियों में सबसे विनाशकारी बाढ़ कोसी नदी के कारण आती है, इसी कारण से कोसी को ‘बिहार का काल’ तथा ‘बिहार का अभिशाप’ के नाम से जाना जाता है। कोसी, महानंदा, बागमती, बूढ़ी गंडक और गंडक जैसी अधिकांश नदियां नेपाल के हिमालय से निकलती हैं।

नेपाल में मानसून में काफी वष्रा होती है, और पहाड़ी क्षेत्र से निकल कर जब कोसी बिहार के मैदानी इलाकों में प्रवेश करती है, तो इसकी धारा बहुत ही तेज हो जाती है। ज्यादा पानी के कारण इसका पाट भी काफी फैल जाता है। धारा के काफी तेज होने और पाट के चौड़े होने के कारण बाढ़ बहुत तेजी से और एकाएक आती है। इस कारण से लोगों को बच निकलने का मौका नहीं मिल पाता और जान-माल की बड़े स्तर पर क्षति होती है। कोसी नदी मूलत: सात धाराओं से मिल कर सप्तकोसी नदी बनती है, और बिहार में प्रवेश करने से थोड़ा पहले इसे कोसी के नाम से जाना जाता है। बिहार में यह करीब 260 किमी. बहती है और फिर गंगा में मिल जाती है, लेकिन इस 260 किमी. के सफर में ही कोसी नदी बिहार में प्रति वर्ष जान- माल और कृषि का खासा नुकसान करती है।

1958 से 1962 के बीच कोसी नदी पर भारत-नेपाल सीमा के पास कोसी बराज का निर्माण किया गया। इस बराज में 56 द्वार हैं,  जिनके द्वारा भारतीय अधिकारी पानी के बहाव को नियंत्रित करते हैं। हालांकि पानी का ज्यादा दबाव होने पर ज्यादातर द्वारों को खोलना पड़ता है ताकि बराज को सुरक्षित रखा जा सके। कोसी बराज के निर्माण के बावजूद 1962 के बाद भी कोसी क्षेत्र के लोगों का भाग्य नहीं बदल सका और वषर्-प्रतिवर्ष वे कोसी का शिकार बनते ही हैं। भारत ने अपने क्षेत्र में बाढ़ से बचाव के लिए नदियों के प्रवाह क्षेत्र को ध्यान में रख कर तटबंधों के निर्माण की नीति बनाई।

भारत सरकार और बिहार सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर तटबंधों का निर्माण किया भी गया है। वर्तमान में बिहार की 13 नदियों पर कुल 3,790 किमी. लंबाई के तटबंधों का निर्माण किया गया है। हालांकि नये-पुराने तटबंधों का हाल यह है कि अक्सर ये टूटते ही रहते हैं। जब भी तटबंध टूटते हैं तो अधिकारियों का रटा-रटाया जवाब यही होता है कि नेपाल ने बिना जानकारी साझा किए ज्यादा पानी छोड़ दिया जिससे तटबंध पानी का दबाव नहीं झेल सके और टूट गए। हास्यास्पद है कि कई बार तो चूहों और सियारों को तटबंधों को नुकसान पहुंचाने का जिम्मेदार बताया गया है। स्पष्ट है कि तटबंधों के निर्माण की गुणवत्ता और रखरखाव में कहीं-न-कहीं लापरवाही भी बाढ़ की विभीषिका के लिए जिम्मेदार है।

बिहार में बाढ़ के विकराल रूप एवं भयावहता को समझने के लिए सबसे उपयुक्त उदाहरण प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का दिया वक्तव्य है। 18 अक्टूबर, 1961 को जब प्रधानमंत्री नेहरू दिल्ली से चितरंजन उद्घाटन समारोह में शामिल होने जा रहे थे तो हवाई मार्ग से जाते हुए उन्होंने बिहार में बाढ़ के विकराल रूप को देखा था और  कहा था, ‘बिहार मानो एक समंदर की तरह दिखता है जिसमें बस पानी ही पानी है, और कहीं-कहीं कुछ टापू जैसे स्थान दिखते हैं। हमें बिहार को बाढ़ से बचाने के लिए गंभीर उपाय करने होंगे।’

बाद में विभिन्न सरकारों ने गंभीर उपायों के नाम पर बांधों और तटबंधों के निर्माण को ही बाढ़ का समाधान मान लिया और बड़े पैमाने पर बांधों और तटबंधों का निर्माण किया जाने लगा। भाखड़ा नांगल बांध के निर्माण से पूर्व भी इस प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी कि भाखड़ा नांगल बांध बने या कोसी पर बड़ा बांध बने, लेकिन अंतत: भाखड़ा नांगल बांध के पक्ष में निर्णय लिया गया। इतने बांधों और तटबंधों के निर्माण के बाद जमीनी हकीकत यह भी है कि ये बांध और तटबंध ही बाढ़ लाने के जिम्मेदार हैं।

बाढ़ से बचाव के लिए आवश्यक है कि नये सिरे से पुन: वन की रोपाई की जाए, नदियों से सिल्ट को निकाल कर उसके नये उपयोग का कोई कारगर तरीका ढूंढा जाए, नये जलाशयों और जलग्रहण क्षेत्रों का निर्माण किया जाए। बांध की बजाय नदियों के अधिक पानी के विभिन्न जलधाराओं में प्रवाह के रास्ते बनाए जाएं। बाढ़ को सिर्फ  प्राकृतिक आपदा न मान कर मानव-जनित आपदा के रूप में भी देखा जाए क्योंकि बाढ़ के इस रूप के लिए सिर्फ   प्रकृति और भौगोलिक स्थिति ही जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि जंगलों की कटाई और बिना दूरदृष्टि के नदियों से छेड़छाड़ भी प्रमुख कारण हैं।

(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

उत्पल कुमार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment