सुरक्षा परिषद : भारी होता भारत का पलड़ा
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन किया है। संयुक्त राष्ट्र निकाय के विस्तार की वकालत भी की है।
सुरक्षा परिषद : भारी होता भारत का पलड़ा |
मैक्रों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में कहा कि फ्रांस सुरक्षा परिषद के विस्तार के पक्ष में है। जर्मनी, जापान, भारत और ब्राजील को परिषद का स्थाई सदस्य होना चाहिए।
दो ऐसे देश भी होने चाहिए जिनकी अफ्रीका प्रतिनिधित्व के लिए अनुशंसा करे। दूसरी तरफ, पाकिस्तान से दोस्ती और भारत विरोधी रु ख के लिए चर्चित तुर्किये के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगान ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान को झटका दिया है। उन्होंने गाजा युद्ध को लेकर जम कर हमला बोला, लेकिन इस बार कश्मीर का जिक्र तक नहीं किया। इससे लगता है कि भारत की स्थाई सदस्यता के लिए सहमति बढ़ रही है। भारत के संयुक्त राष्ट्र में भारी होते पलड़े के संदर्भ में विदेश नीति के विशेषज्ञों का मानना है कि तुर्किये ब्रिक्स का सदस्य देश बनना चाहता है। इसके लिए उसे भारत की मदद जरूरी है। भारत असहमति जता देता है तो उसे सदस्यता मिलना मुश्किल है।
ब्रिक्स में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका शामिल हैं। भारत इनमें प्रमुख सदस्य है। इस बीच खबर यह भी है कि तुर्किये को नाटो देशों के समूह से बाहर निकाला जा सकता है। इसलिए तुर्किये ब्रिक्स देशों की सदस्यता चाहता है। एर्दोगान ने कहा भी है, ‘हम ब्रिक्स देशों के साथ अपने संबंध बेहतर करना चाहते हैं। ब्रिक्स देश दुनिया की उभरती आर्थिक शक्ति हैं। इसलिए हम उनके साथ संबंध मजबूत और विश्वसनीय बनाने के पक्षधर हैं।’ एर्दोगान ने यह झटका तब दिया है, जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने पूरी तैयारी कर रखी थी कि महासभा में कश्मीर में हो रहे चुनाव का मुद्दा उठाया जाए और इस चुनाव प्रक्रिया को अलोकतांत्रिक बताया जाए, परंतु दुनिया की सबसे बड़ी तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की ओर बढ़ रहे भारत का डंका विश्व की लोकतांत्रिक और मानवाधिकार हित की पैरवीकार संस्थाओं में बजता दिख रहा है।
इस परिप्रेक्ष्य में भारत की दलील है कि 1945 में स्थापित 15 देशों की सुरक्षा परिषद् 21वीं सदी की लक्ष्य पूर्तियों के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें समकालीन भू-राजनीतिक वास्तविकताओं का प्रतिबिंब दिखाई नहीं दे रहा। भारत 2021-22 में संयुक्त राष्ट्र की उच्च परिषद् में अस्थाई सदस्य के रूप में चुना गया था किंतु दुनिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उससे निपटने के लिए स्थाई सदस्यों की संख्या दुनिया का हित साधने के लिए बढ़ाई जानी चाहिए। इसीलिए मैक्रों को कहना पड़ा, ‘सुरक्षा परिषद् के कामकाज के तरीकों में बदलाव, सामूहिक अपराधों के मामलों में वीटों का अधिकार सीमित करने और शांति बनाए रखने के लिए जरूरी फैसलों पर ध्यान देने की जरूरत है। अतएव जमीन पर बेहतर और बेहिचक तरीके से काम करने की दृष्टि से दक्षता हासिल करने का समय आ गया है।’ मैक्रों की टिप्पणी प्रधानमंत्री मोदी द्वारा रविवार 22 सितम्बर, 2024 को ‘भविष्य के शिखर सम्मेलन’ को संबोधित करने के कुछ दिन बाद आई जिसमें मोदी ने इस बात पर जोर दिया था कि वैश्विक शांति और विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में सुधार आवश्यक है।
उन्होंने कहा था, ‘सुधार प्रासंगिकता की कुंजी है।’ वाकई इस समय संस्थाएं अपनी प्रासंगिकता खोती दिखाई दे रही हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेस ने 15 सदस्य देशों की सुरक्षा परिषद् को भी पुरानी व्यवस्था का हिस्सा बता कर आलोचना की। स्पष्ट कहा कि अगर इसकी संरचना और कार्यप्रणाली में सुधार नहीं होता है तो इस संस्था से दुनिया का भरोसा उठ जाएगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का गठन हुआ था। अहम मकसद भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से सुरक्षा परिषद का सदस्य बना था। कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र में अवर महासचिव रहे शशि थरूर ने अपनी किताब ‘नेहरू-द इन्वेंशन ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि 1953 के आसपास भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था। लेकिन उन्होंने इसे चीन को दे दिया। भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान, अमेरिका और रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आज तक उबर नहीं पाए हैं।
तालिबान की आमद के बाद अफगानिस्तान में किस बेरहमी से विरोधियों और स्त्रियों को दंडित किया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। इस्रइल और फिलिस्तीन और रूस एवं अमेरिका के बीच युद्ध एक नहीं टूटने वाली कड़ी बन गए हैं। अनेक इस्लामिक देश गृह-कलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। दुनिया में फैल चुके इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को नहीं मानता। इसका उदाहरण अजहर जैसे आतंकियों को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने पर चीन का बार-बार वीटो का इस्तेमाल करना है जबकि भारत विश्व में शांति स्थापित करने के अभियानों में मुख्य भूमिका निर्वाह करता रहा है। बावजूद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी एवं सामुदायिक बहुलता वाला देश सुरक्षा परिषद् का स्थाई सदस्य नहीं है।
भारत में दुनिया की 18 फीसद आबादी रहती है। दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारतीय है। साफ है, संयुक्त राष्ट्र की कार्य-संस्कृति निष्पक्ष नहीं है। कोरोना महामारी के दौर में विश्व स्वास्थ्य संगठन की मनवतावादी केंद्रीय भूमिका दिखनी चाहिए थी, लेकिन वह महामारी फैलाने वाले दोषी देश चीन के समर्थन में खड़ा नजर आया। अलबत्ता, सुरक्षा परिषद् की भूमिका वैश्विक संगठन होने की दृष्टि से इसलिए महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि उसके एजेंडे में प्रतिबंध लागू करने और संघर्ष की स्थिति में सैनिक कार्रवाई की अनुमति देने के अधिकार शामिल हैं। इस नाते उसकी मूल कार्यपद्धति में शक्ति-संतुलन बनाए रखने की भावना अंतनिर्हित है, लेकिन वह इन प्रतिबद्धताओं को नजरअंदाज कर रहा है, गोया संस्था के प्रति विश्वास का संकट गहराया हुआ है। नतीजतन, इसमें सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है।
(लेखक के निजी विचार हैं)
| Tweet |