शान तिरंगा है : रचयिता को ही नहीं नसीब हुआ राष्ट्रध्वज

Last Updated 15 Aug 2024 01:34:48 PM IST

हर घर तिरंगा के पावन दिन पर आज यह सियासी दुखांतिका है, राष्ट्रीय त्रासदी भी। जिन्हें नाज है हिन्द पर वे सभी जान लें। राष्ट्रध्वज के रु परेखाकार पिंगली वैंकय्या एक तेलुगूभाषी निर्धन स्कूल मास्टर थे।


शान तिरंगा है : रचयिता को ही नहीं नसीब हुआ राष्ट्रध्वज

कंगाली में जन्मे (2 अगस्त, 1876 : सागरतटीय मछलीपत्तनम, आंध्र) तथा अभाव में पले। इस विप्र के शवदाह में पर्याप्त ईधन नहीं मिला। उनका अधूरा ख्वाब था कि तिरंगे में लपेट कर उनकी लाश ले जाई जाए। आज (10 अगस्त) नरेन्द्र मोदी से लेकर सभी उनकी स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

वैंकय्या ने जीवन में कई ज्वारभाटा देखे। मेधावी छात्र थे। लाहौर के वैदिक महाविद्यालय में उर्दू और जापानी के अध्यापक रहे। कैंब्रिज विविद्यालय से स्नातक डिग्री ली।  भारत लौट कर आए तो निजी रेलवे कंपनी में जीविका पाई। लखनऊ में भी एक शासकीय नौकरी की। उनके रोजगार में विविधता रही। भूविज्ञान तथा कृषि क्षेत्र में निष्णात रहे। खदानों के जानकार रहे। फिर आई उनके जीवन की विलक्षण बेला। ब्रिटिश सेना का दक्षिण अफ्रीका में बोयर युद्ध हुआ। भारतीय भी वहां गए। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सैनिक था मोहनदास कर्मचंद गांधी। वे चिकित्सक (स्वयंसेवक) की भूमिका में थे। तभी वैंकय्या भी ब्रिटिश सैनिक के रोल में गए। गांधी जी से भेंट हुई, परिचय हुआ। फिर भारत में राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन में दोनों में प्रगाढ़ता सर्जी। तभी का किस्सा है।

चालुक्यों की गौरवमयी राजधानी रही काकीनाडा (गोदावरी तटीय) की घटना है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन (26 दिसम्बर, 1923) हुआ। यह चालुक्यों के सम्राट पुलकेशिन से जुड़ा था। यहीं वैंकय्या ने कांग्रेस में शरीक होकर राष्ट्रीय ध्वज के प्रारूप पर चर्चा की थी। यह अधिवेशन दो घटनाओं के लिए ऐतिहासिक था-मौलाना मोहम्मद अली ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वंदे मातरम गाने पर एतराज किया था। वॉकआउट किया। तभी से यह राष्ट्रगान अधूरा हो गया-इसी अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस ने तय किया कि स्वतंत्रता के बाद भारत का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया जाएगा।

सर्वाधिक निर्धारण महत्त्वपूर्ण था कि काकीनाडा अधिवेशन में ही वैंकय्या ने राष्ट्रध्वज की आवश्यकता पर बल दिया था। उनका यह विचार गांधी जी को बहुत पसंद आया। गांधी जी ने उन्हें राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप तैयार करने का सुझाव दिया। पिंगली वैंकय्या ने पांच सालों तक तीस विभिन्न देशों के राष्ट्रीय ध्वजों पर शोध किया और अंत में तिरंगे के लिए सोचा। विजयवाड़ा में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पिंगली वैंकय्या महात्मा गांधी से मिले और उन्हें अपने द्वारा डिजाइन लाल और हरे रंग से बनाया हुआ झंडा दिखाया। तब तक ब्रिटिश यूनियन जैक ध्वज ही कांग्रेस सम्मेलनों में फहरता था। मगर बाद में तिरंगा फहरने लगा।

देश में कांग्रेस पार्टी के सारे अधिवेशनों में दो रंगों वाले अंग्रेजी झंडों का प्रयोग बंद हो गया। लेकिन उस समय इस झंडे को कांग्रेस की ओर से अधिकारिक तौर पर स्वीकृति नहीं मिली थी। इस बीच जालंधर के हंसराज ने झंडे में चक्र चिह्न बनाने का सुझाव दिया। इस चक्र को प्रगति और आम आदमी के प्रतीक के रूप में माना गया। बाद में गांधी जी के सुझाव पर पिंगली वैंकय्या ने शांति के प्रतीक सफेद रंग को भी राष्ट्रीय ध्वज में शामिल किया। बाद में 1931 में कांग्रेस ने कराची के अखिल भारतीय सम्मेलन में केसरिया, सफेद और हरे, तीन रंगों से बने इस ध्वज को सर्वसम्मति से स्वीकार किया। फिर राष्ट्रीय ध्वज में इस तिरंगे के बीच चरखे की जगह अशोक चक्र ने ले ली।

राष्ट्रध्वज वैंकय्या द्वारा निरु पित हो जाने से गीत का प्रस्ताव आया। इसी की पंक्ति थी जो हम लोग गुलाम भारत (1945-46) में स्कूलों में गाते थे। ध्वज गीत की रचना श्यामलाल गुप्त ‘पाषर्द’ ने की थी। पद वाले इस मूल गीत से बाद में कांग्रेस ने तीन पद (पद संख्या 1, 6 व 7) को संशोधित करके ‘ध्वजगीत’ के रूप में मान्यता दी। यह गीत न केवल राष्ट्रीय गीत घोषित हुआ, बल्कि अनेक नौजवानों और नवयुवतियों के लिए देश पर मर मिटने हेतु प्रेरणा का स्रोत भी बना : ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा। सदा शक्ति बरसाने वाला, प्रेम सुधा सरसाने वाला। वीरों को हरषाने वाला, मातृभूमि का तन-मन सारा।’ 9 अगस्त, 1942 में गवालिया टैंक मैदान, बंबई (अगस्त क्रांति मैदान) में सारे नेताओं के कैद हो जाने पर क्रांतिकारी अरुणा आसफ अली ने यह ध्वज फहराया था। वे भी गुनगुना रही थीं : ‘इसकी शान न जाने पाए। चाहे जाने भले ही जाए।’ मगर इतिहास की विडंबना है कि भारी विरोध के बाद भी तिरंगा सत्तारूढ़ कांग्रेस का पार्टी झंडा भी हो गया। आम जन को भ्रम होता है। राष्ट्रीय कांग्रेस का भारत को भ्रम में डालने का यह एक और किस्सा है। जैसे गांधी उपनाम का नेहरू वंश वालों द्वारा इस्तेमाल धोखा ही हुआ।

के. विक्रम राव


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