बांग्लादेश : संदेश की गंभीरता समझें

Last Updated 12 Aug 2024 01:41:12 PM IST

भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश में जो हुआ उसने कई तरह के सवाल खड़े किए हैं परंतु इन सबमें अहम सवाल भारत और बांग्लादेश के संबंधों का है।


बांग्लादेश : संदेश की गंभीरता समझें

पड़ोसी और मित्र होने के चलते जिस तरह भारत ने बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री और  अपदस्थ नेता शेख हसीना को दिल्ली में शरण दी है वह आने वाले समय में भारत और बांग्लादेश के संबंधों पर गहरा असर डाल सकता है क्योंकि आम बांग्लादेशियों की नजर में शेख हसीना और भारत एक दूसरे के पर्याय माने जाते हैं। ऐसे में अगले कुछ महीने दोनों देशों के रिश्तों के लिए तनाव भरे भी हो सकते हैं। बांग्लादेश में बनी मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार भारत के साथ किस तरह पेश आती है, यह अभी कहा नहीं जा सकता। यह हमारी चिंता का विषय रहेगा।

कई देशों में भारत के राजदूत रहे अनिल त्रिगुणायत के अनुसार यह ऐसा संकट है जो वाजिब संदेह से परे नहीं है। दुनिया में सबसे लंबे समय तक सत्तारूढ़ रहीं महिला प्रधानमंत्री और बांग्लादेश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली प्रधानमंत्री शेख हसीना का बांग्लादेश में हो रहीं घटनाओं के त्वरित क्रम में, अचानक इस्तीफा, निष्कासन और प्रस्थान अप्रत्याशित था। उनके कार्यकाल के दौरान उनके प्रशासन ने बांग्लादेश को महत्त्वपूर्ण स्थायित्व प्रदान किया। इसके कारण उसकी आर्थिक प्रगति भी प्रभावशाली रही पर साथ ही शेख हसीना के शासन में बढ़े भारी भ्रष्टाचार और उनके अहंकार के साथ-साथ उन पर चुनावों में गड़बड़ी करवाने के आरोपों ने उनकी विरासत को कलंकित किया। अपने ही दल के लोगों को स्वतंत्रता सेनानी बता कर सरकारी नौकरियों में लगातार तीस फीसद आरक्षण देना युवाओं में उनके भारी विरोध का मुद्दा बना।

हालांकि जुलाई के तीसरे सप्ताह में बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सुलटा दिया था। फिर भी यह विवाद का बड़ा मुद्दा बना रहा। इसी के चलते 300 से अधिक छात्रों और प्रदर्शनकारियों की मौत के साथ स्थिति बिगड़ गई। वो महत्त्वपूर्ण मोड़ था जब सेना ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। यह घटनाक्रम श्रीलंका और मिस्र में देखे गए संकटों की प्रतिध्वनि है। इस बीच, बांग्लादेश नेशनिलस्ट पार्टी की नेता बेगम खालिदा जिया की नजरबंदी रद्द कर दी गई है जो फिर से सक्रिय हो रही हैं। वे कट्टरपंथियों और पाकिस्तान के करीब मानी जाती हैं। हमारे लिए यह चिंता का कारण है।

उधर, बांग्लादेश की सेना के लिए भी आने वाला समय आसान नहीं है क्योंकि सेना प्रमुख ने जनता विशेषकर छात्रों से इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों के मामले में कार्रवाई और जांच का आश्वासन देते हुए सहयोग मांगा है। ऐसा है तो क्या उग्र और अनियंत्रित भीड़ द्वारा शेख हसीना के कार्यालय, आवास और संसद में की गई तोड़फोड़ को नजरअंदाज किया जाएगा? गौरतलब है कि बांग्लादेश के लोगों खासकर युवाओं को लंबे समय तक चलने वाला सैन्य शासन पसंद नहीं है। यदि एक समय के बाद सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण नहीं किया गया तो सेना को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर  चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के कुछ जानकर ऐसा भी मानते हैं कि बांग्लादेश में आरक्षण ही मुद्दा होता तो शेख हसीना जनवरी, 2024 में भारी बहुमत से चुनाव कैसे जीतीं? ऐसा क्या हुआ कि मात्र छह महीनों में ही उन्हें देश छोड़ कर जाने पर मजबूर होना पड़ा? उनका कहना है कि पाकिस्तान बांग्लादेश के अलग होने से बिल्कुल भी खुश नहीं था। उसकी जासूस एजेंसी आईएसआई हमेशा से बांग्लादेश में सक्रिय रही है जिसने इस तख्तापलट की पटकथा लिखी है क्योंकि शेख हसीना ने पिछले 15 वर्षो से भारत के साथ अच्छे संबंध रखे और वे भारतीय हितों को पोषित करने वाली मानी जाती थीं जिससे पाकिस्तान बेचैन था। ऐसे पड़ोसी मित्र का सत्ता से अचानक हटना भारत के लिए चिंता का सबब अवश्य है।

प्रश्न है कि भारत जैसे मजबूत देश और भारत का एक तेज-तर्रार खुफिया तंत्र होने के बावजूद ढाका में होने वाले राजनैतिक घटनाक्रम की भनक तक क्यों नहीं लगी? क्या इसे भी पुलवामा की तरह ‘इंटेलिजेंस फेलियर’ माना जाए? उल्लेखनीय है कि 1975 में भारत की इंटेलिजेंस एजेंसियों को बांग्लादेश में तख्तापलट की भनक लगी तो तब भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक सप्ताह पहले ही हेलीकॉप्टर भेज कर शेख मुजीबुर रहमान को भारत में शरण लेने की सलाह दी थी, परंतु वे नहीं माने। परिणामस्वरूप उन्हें और उनके बेटों और परिवार के 17 सदस्यों को ढाका में उनके घर में ही मार दिया गया। यदि उसी तरह हमारी खुफिया एजेंसियां ढाका में होने वाले ताजा घटनाक्रम की खबर समय रहते दे देतीं तो शायद प्रधानमंत्री मोदी बांग्लादेश को संकट से बचा भी सकते थे।  

दूसरी ओर, यदि हमारे पास घटनाक्रम की जानकारी थी तो हमने बांग्लादेश के समर्थन में समय रहते कठोर कदम क्यों नहीं उठाए? विदेशी मामलों के ये जानकार यह भी कहते हैं कि भारत ने 2014 तक अपनी कूटनीति के चलते दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को अपने पांव पसारने नहीं दिए। नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और भारत सहित सात देशों के समूह ने भारत की पहल पर ही सार्क का गठन किया जिसमें पाकिस्तान के अलावा भारत के सभी से अच्छे संबंध रहे, परंतु किन्हीं कारणों से हमारी विदेश नीति में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए कि 2015 के बाद से सार्क देशों की एक भी बैठक नहीं हुई। सार्क के बिखरते ही चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के चलते पहले पाकिस्तान और फिर भारत के अन्य पड़ोसी देशों में भी अपने पांव पसारने शुरू कर दिए परंतु यह सब होते हुए हम चुपचाप बैठे देखते रहे।

नतीजतन, आज भारत चारों और से चीन के प्रभाव वाले पड़ोसियों से घिर गया है। अब छोटे से देश भूटान को छोड़कर कोई हमारा मित्र नहीं है। बांग्लादेश के साथ हमारा लाखों करोड़ का व्यापार चल रहा है। दोनों देशों के बीच काफी लंबी सीमा भी लगती है जो हमारी बड़ी चिंता का विषय है। इसलिए हमारे हक में होगा कि बांग्लादेश में जो भी सरकार चुनी जाए वह भारत के हित की ही बात करे वरना जहां हमारी दो सीमाएं पहले से ही नाजुक स्थिति में हैं, कहीं हम चारों ओर से दुश्मनों से घिर न जाएं। अब यह उत्सुकता से देखना होगा कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के बाद जो भी सरकार बने वह भारत के साथ कैसे संबंध रखती है। इसलिए ढाका में हुए घटनाक्रम को दिल्ली को गंभीरता से लेना होगा।

विनीत नारायण


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