आर्थिक प्रगति : जीवित रहे संस्कृति का संस्कार
किसी भी देश में सत्ता का व्यवहार उस देश के समाज की इच्छा के अनुरूप ही होने के प्रयास होते रहे हैं। जब-जब सत्ता द्वारा समाज की इच्छा के विपरीत निर्णय लिए गए हैं अथवा समाज के विचारों का आदर सत्ता द्वारा नहीं किया गया है तब-तब उस देश में सत्ता परिवर्तन होता दिखाई दिया है।
आर्थिक प्रगति : जीवित रहे संस्कृति का संस्कार |
लोकतंत्र में तो सत्ता की स्थापना समाज द्वारा ही की जाती रही है। साथ ही, किसी भी देश की आर्थिक प्रगति के लिए देश में शांति बनाए रखना सबसे पहली आवश्यकता मानी जाती है। समाज में विभिन्न मत पंथ मानने वाले नागरिक आपस में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाएंगे तो शांति किस प्रकार स्थापित की जा सकेगी।
भारत पिछले लगभग 2000 वर्षो के खंडकाल में से अधिकतम समय (लगभग 250 वर्षो के खंडकाल को छोड़कर) पूरे विश्व में आर्थिक ताकत के रूप में अपना स्थान बनाने में सफल रहा और इसे ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता रहा। 712 ईस्वी में भारत पर हुए आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी भारत की आर्थिक प्रगति पर कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा था परंतु 1750 ईस्वीं में अंग्रेजों (ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में) के भारत में आने के बाद से भारत की आर्थिक प्रगति को जैसे ग्रहण ही लग गया था।
आक्रांताओं एवं अंग्रेंजों ने न केवल भारत को जमकर लूटा, बल्कि भारत की संस्कृति पर भी गहरी चोट की थी और भारत के नागरिक जैसे अपनी जड़ों से कटकर रहने लगे थे। आक्रांताओं एवं अंग्रेजों के पूर्व भी भारत पर आक्रमण हुए थे, शक, हूण, कुषाण आदि ने भी भारत पर आक्रमण किया था परंतु लगभग 250/300 वर्षो तक भारत पर शासन करने के उपरांत उन्होंने अपने आपको भारतीय सनातन संस्कृति में ही समाहित कर लिया था। इसके ठीक विपरीत आक्रांताओं एवं अंग्रेजों का भारत पर आक्रमण का उद्देश्य भारत की लूटखसोट करने के साथ ही अपने धर्म एवं संस्कृति का प्रचार प्रसार करना भी था।
आक्रांताओं ने जोरजबरदस्ती एवं मारकाट मचाकर भारत के मूल नागरिकों का धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनाया तो अंग्रेजों ने लालच का सहारा लेकर एवं दबाव बनाकर भारतीय नागरिकों को ईसाई बनाया। कुछ विदेशी ताकतों द्वारा भारत में आज पुन: इस प्रकार के प्रयास किए जा रहे हैं कि हिन्दू समाज को किस प्रकार आपस में लड़ाकर छिन्न-भिन्न किया जाए। ऐसा विमर्श खड़ा करने का प्रयास हो रहा हैं कि देश में हिन्दू हैं ही नहीं, बल्कि सिख हैं, दलित हैं, राजपूत हैं, जैन हैं आदि-आदि। जातियों के आधार पर जन गणना की मांग की जा रही है ताकि समस्त सुविधाओं को हिन्दू समाज की विभिन्न जातियों की जनसंख्या के आधार पर वितरित किया जा सके जिससे अंतत: देश में विभिन्न जातियों के बीच झगड़े पैदा हों और इस प्रकार भारत को पुन: गुलाम बनाए जाने में आसानी हो सके। विदेशी ताकतों द्वारा आज भारत के एकात्म समाज को टूटा-फूटा समाज बनाए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
एक बार पुन: भारत ऐसे खंडकाल में प्रवेश करता दिखाई दे रहा है जिसमें आर्थिक क्षेत्र में भारत की तूती पूरे विश्व में बोलती दिखाई देगी। ऐसे में कुछ देशों द्वारा भारत की आर्थिक प्रगति के सामने बाधाएं खड़ी किए जाने के प्रयास हो रहे हैं। देश में निवासरत 80 प्रतिशत आबादी हिन्दू सनातन संस्कृति की अनुयायी है एवं हिन्दू समाज में व्याप्त समस्त जातियों, मत, पंथों को मानने वाले नागरिकों में त्याग, तपस्या, देशप्रेम का भाव, स्व-समर्पण का भाव कूट-कूट कर भरा है। कहा भी जाता है कि हिन्दू जीवन दर्शन ही पूरे विश्व में शांति स्थापित करने में मददगार बन सकता है। भारतीय जीवन प्रणाली अपने आप में सर्व समावेशक है। हिन्दू सनातन धर्म का अनुपालन करने वाले नागरिक पशु, पक्षी, वनस्पति, पहाड़, नदियों आदि में भी ईश तत्त्व का वास मानते हैं, और उनकी पूजा भी करते हैं।
हिन्दू संस्कारों में पला-बढ़ा नागरिक सहिष्णु होता है। इसी के चलते कहा जा रहा है कि कई देशों में बढ़ रही हिंसा को नियंत्रित करने में हिन्दू सनातन संस्कृति के अनुयायी ही सहायक हो सकते हैं। और फिर, हिन्दू जीवन दर्शन का अंतिम ध्येय तो मोक्ष को प्राप्त करना है। इस अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से भी हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायी कोई भी काम आत्मविचार, मनन एवं चिंतन करने के उपरांत ही करता है। इस प्रकार, इनसे किसी भी जीव को दुखाने वाला कोई गलत काम हो ही नहीं सकता। कई देशों के बीच कई प्रकार की समस्याएं व्याप्त हैं, वे आपस में लड़ रहे हैं, अपने नागरिकों को खो रहे हैं। यूक्रेन-रूस के बीच युद्ध एवं हमास- इस्रइल युद्ध इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। बांग्लादेश में अशांति व्याप्त हो गई है। इसी प्रकार ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका जैसे शांतिप्रिय देश भी आज विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रसित होते दिखाई दे रहे हैं। इसलिए शांति स्थापित करने एवं आर्थिक विकास को गतिशील बनाए रखने के उद्देश्य से आज हिन्दू सनातन संस्कृति के संस्कारों को आज पूरे विश्व में फैलाने की महती आवश्यकता है।
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