आम बजट : जनता की उम्मीदें
जहां एक तरफ केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश की आर्थिक प्रगति को लेकर लगातार अपनी पीठ थपथापती रही हैं, वहीं देश के बड़े अर्थशास्त्री, उद्योगपति और मध्यमवर्गीय व्यापारी वित्त मंत्री के बनाए पिछले बजटों से संतुष्ट नहीं हैं। अब नया बजट आने को है पर जिन हालात में एनडीए की सरकार आज काम कर रही है, उनमें उससे किसी क्रांतिकारी बजट की आशा नहीं की जा सकती।
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नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की लंबी-चौड़ी वित्तीय मांगें, सत्तारूढ़ दल द्वारा आम जनता को आर्थिक सौगातें देने के वादे और देश के विकास की जरूरत के बीच तालमेल बिठाना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब भारत सरकार ने विदेशों से ऋण लेने की सारी सीमाएं लांघ दी हैं। आज भारत पर 205 लाख करोड़ रुपये का विदेशी कर्ज है। ऐसे में और कितना कर्ज लिया जा सकता है? क्योंकि कर्ज को चुकाने के लिए जनता पर अतिरिक्त करों का भार डालना पड़ता है जिससे महंगाई बढ़ती है जिसकी मार आम जनता पहले ही झेल रही है। दक्षिण भारत के उद्योगपति, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रशंसक और आर्थिक मामलों के जानकार डॉ. मोहनदास पाइ ने देश की मौजूदा आर्थिक हालत पर तीखी टिप्पणी की है। देश की मध्यम वर्गीय आबादी में बढ़ते रोष का हवाला देते हुए वे कहते हैं, ‘पूरे देश में मध्यम वर्ग दुखी है क्योंकि वे अधिकांश करों का भुगतान कर रहे हैं। उन्हें कर कटौती नहीं मिल रही। मुद्रास्फीति अधिक है, लागत अधिक है, छात्रों की फीस बढ़ गई है और रहने की लागत बढ़ गई है।
हालात में सुधार होने के बावजूद यातायात के कारण शहरों में जीवन की गुणवत्ता खराब बनी हुई है। वे करों की दर में कमी देखना चाहते हैं।’ पाइ उस टैक्स स्लैब नीति के पक्ष में नहीं हैं, जो सरकार ने पिछले दो बजट में पेश की है। उनके अनुसार, आयकर संग्रह 20-22 प्रतिशत बढ़ रहा है, इसलिए मध्यम वर्ग के लिए आयकर के कई नये स्लैब और केवल आवास निर्माण के लिए कारों में छूट देने की बजाय करों में कटौती करने की आवश्यकता है। आगामी बजट से देश को काफी उम्मीदें हैं। हर कोई चाहता है कि बढ़ती महंगाई के चलते उन पर अतिरिक्त करों का भार न पड़े।
उधर, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार ने सरकार के समानांतर किए गए देश के आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति को लेकर जो विश्लेषण किया है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वे कहते हैं, ‘सरकार का राजनीतिक निर्णय लोगों की आर्थिक जरूरतों से भिन्न है। बजट दस्तावेज का एक जटिल समूह है जिसे अधिकांश नागरिक समझने में असमर्थ हैं। बजट में ढेर सारे आंकड़ों और लोकलुभावन घोषणाओं के पीछे असली राजनीतिक मंशा छिपी होती हैं। तमाम समस्याओं के बावजूद नागरिकों की समस्याएं साल-दर-साल बनी रहती हैं।’ ‘सरकार बजट का उपयोग यह दिखाने के लिए करती है कि कठिनाइयों के बावजूद अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही है और नागरिकों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा।
इसके लिए डेटा को चुनिंदा तौर पर पेश किया जाता है। चूंकि पूरी तस्वीर सामने नहीं आई है, इसलिए विश्लेषकों को अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति बताने के लिए पेश किए गए आंकड़ों के पीछे जाना होगा। इसलिए, जहां स्थापित अर्थशास्त्री बजट की प्रशंसा करते हैं, वहीं आलोचक यथार्थवादी स्थिति प्रस्तुत करते हैं, और इसमें वैकल्पिक व्याख्या का महत्व निहित है।’ यह समस्या, महत्त्वपूर्ण डेटा की अनुपलब्धता और इसके हेरफेर से और बढ़ गई है।
उदाहरण के लिए, जनगणना 2021 का इंतजार है। 2022 की शुरु आत के बाद महामारी समाप्त हो गई और अधिकांश देशों ने अपनी जनगणना कर ली है, लेकिन भारत में यह प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। जनगणना डेटा का उपयोग डेटा संग्रह के लिए उपयोग किए जाने वाले अधिकांश अन्य सर्वेक्षणों के लिए नमूना तैयार करने के लिए किया जाता है। फिलहाल, 2011 की जनगणना का उपयोग किया जाता है, लेकिन उसके बाद से हुए बड़े बदलावों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है। इसीलिए, परिणाम 2024 की स्थिति का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।’ प्रो. कुमार के अनुसार, ‘सरकार द्वारा प्रतिकूल समाचारों का खंडन भी एक अहम कारण है।
क्योंकि यह आलोचना के उस बिंदु को भूल जाता है जो परिभाषा के अनुसार बड़ी तस्वीर और उसकी कमियों पर केंद्रित है। यह सच है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ती है, बहुत सी चीजें घटित होती हैं, या बदलती हैं। वहां अधिक सड़कें, उच्च साक्षरता, अधिक अस्पताल, अधिक ऑटोमोबाइल आदि हैं लेकिन इनके साथ गरीबी, खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वास्थ्य आदि भी हो सकते हैं। ये कमियां समाज के लिए चिंता का कारण हैं, और आलोचक इन्हें उजागर करते हैं।
महामारी ने उन्हें तीव्र फोकस में ला दिया। महामारी से उबरने के बाद स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है क्योंकि यह असमान है। संगठित क्षेत्र असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ रहा है, जिससे गिरावट आ रही है, और विशाल बहुमत की समस्याएं बढ़ रही हैं। कई अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग सापेक्ष हैं, और पूर्ण नहीं हैं, लेकिन भारत की रैंकिंग में कम रैंक या गिरावट यह दर्शाती है कि या तो स्थिति अन्य देशों की तुलना में खराब हो रही है, या वास्तव में समय के साथ गिरावट आ रही है। प्रो. कुमार के अनुसार, ‘आधिकारिक डेटा आंशिक हैं, और प्रतिकूल परिस्थितियों को छुपाने के लिए इनमें हेरफेर किया गया है।
इसीलिए एक वैकल्पिक तस्वीर तैयार करने की जरूरत है जो देश में बढ़ती आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता और बढ़ते संघर्ष की वास्तविकता को दर्शाती हो। यह हाशिए पर मौजूद वगरे की समस्याओं के समाधान के लिए नीतियों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता को उजागर करता है। यह शून्य-राशि वाला खेल नहीं होगा, बल्कि देश के लिए एक सकारात्मक-राशि वाला खेल होगा।’ इन हालात में आम बजट में देशवासियों को क्या राहत मिलती है, यह तो बजट प्रकाशित होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जाने-माने आर्थिक विशेषज्ञों के इस विश्लेषण को मोदी सरकार को गंभीरता से लेने की जरूरत है।
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