सामयिक : ये कैसा विरोध

Last Updated 20 Jun 2024 12:38:57 PM IST

वे माओवादी हिंसा को दरकिनार करके इसे गरीब आदिवासियों का विद्रोह कहती हैं। करीब डेढ़ दशक पहले उन्होंने रेड कॉरिडोर के केंद्र माने जाने वाले बस्तर की गुपचुप यात्रा की और दंडकारण्य में माओवादियों के साथ काफी वक्त बिताया।


सामयिक : ये कैसा विरोध

वे माओवादियों को भाई, साथी या कॉमरेड कह कर लाल सलाम कहने में फख्र महसूस किया करती थीं। उन्हें संविधान और लोकतंत्र आदिवासियों की खिलाफत का अस्त्र नजर आता है। 1997 में प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से सम्मानित अरुंधती रॉय अपनी किताब ‘वॉकिंग विद द कॉमरेड्स’ में लिखती हैं-‘भारतीय संविधान, जो भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला है, संसद द्वारा 1950 में लागू किया गया। यह जनजातियों और वनवासियों के लिए दु:ख भरा दिन था। संविधान में उपनिवेशवादी नीति का अनुमोदन किया गया और राज्य को जनजातियों की आवास भूमि का संरक्षक बना दिया गया। मतदान के अधिकार के बदले में संविधान ने उनसे आजीविका और सम्मान के अधिकार छीन लिए।’

अरुंधती अपनी इस किताब में माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा का खतरा बताए जाने का मखौल उड़ाती हैं। भारत की यह ख्यात लेखिका मानवाधिकार के मुद्दों पर सरकार पर हमले करने से परहेज नहीं करतीं। अरुंधती कश्मीर में तैनात फौज को जनता की दुश्मन बताती हैं। उन्हें संसद पर हमले के प्रमुख आरोपी अफजल गुरु से हमदर्दी रही। अपने ब्लॉग में वह भारत की पूरी न्याय प्रक्रिया पर कटाक्ष करते हुए कहती हैं-‘लेकिन अब जब अफजल गुरु को फांसी दे दी गई है, तो मुझे उम्मीद है कि हमारी सामूहिक अंतरात्मा संतुष्ट हो गई होगी। या फिर हमारे खून का प्याला अभी भी आधा ही भरा है?’ 2010 में राजधानी दिल्ली में एक कार्यक्रम में उन्होंने सार्वजानिक रूप से कहा-‘कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं था और उस पर भारत के सशस्त्र बलों ने जबरन कब्जा कर लिया था।’

कश्मीर की पृथकतावादी ताकतों के लिए अरुंधती पसंदीदा चेहरा हैं, और उनके विचारों को वे भारत के बौद्धिक वर्ग की आवाज कह कर दुनिया भर में प्रचारित करते हैं। 2010 में दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया था। उन पर भारत विरोधी भाषण देने और कश्मीरी अलगाववाद का समर्थन करने का आरोप लगाया गया। अब अरुंधती रॉय के खिलाफ गैर-कानूनी गतिविधियां अधिनियम के तहत मुकदमा चलेगा। अरुंधती अच्छी लेखिका हैं, और उन्हें पसंद करने वाले देश-विदेश के कई लोग हैं, जिन्हें लगता है कि अरुंधती पर मुकदमा कायम करना,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने जैसा है। 2023 के फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में सलमान रुश्दी ने अरुंधति पर मुकदमा चलाने के कदमों की आलोचना  करते हुए कहा था-‘वह भारत की महान लेखिकाओं में से एक हैं, और बहुत ईमानदार और जुनूनी इंसान हैं। उन मूल्यों को व्यक्त करने के लिए उन्हें अदालत में लाने का विचार शर्मनाक है।’

भारत की विविधता और जटिलता में बहुत सारे विरोधाभास हैं, और इसे स्वीकार भी किया जाना चाहिए। अरुंधती ने अपनी लेखनी और आंदोलनों में हिस्सा लेकर इन्हें समाज के सामने लाने में महती भूमिका निभाई है। आजादी और स्वतंत्रता की पक्षधर इस लेखिका को 45वें यूरोपीय निबंध पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। अरुंधती भारतीय लेखिका के रूप में देश-विदेश में आमंत्रित की जाती हैं, लेकिन वे अक्सर भारत की छवि को निरंकुशता के करीब ले आती हैं। अरुंधती गरीब आदिवासियों के लिए भारतीय संविधान को शोषण के अस्त्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए दिखाई पड़ती हैं।

संविधान का अवलोकन करें तो उनके दावों से उलट आदिवासियों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास के लिए कई उपबंध शामिल किए गए हैं। अनुच्छेद 15(4) अनुसूचित जनजातियों की शैक्षिक उन्नति के लिए विशेष प्रावधान सुनिश्चित करता है। अनुच्छेद 46, राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने और उन्हें सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित करने का निर्देश देता है। अनुच्छेद 350 विशिष्ट भाषाओं, लिपियों या संस्कृतियों के संरक्षण के अधिकारों का प्रावधान करता है। लोकतांत्रिक देश में व्यापक प्रतिनिधित्व के लिए संविधान में संसद और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है। संविधान की पांचवी अनुसूची के अंतर्गत संवैधानिक प्रावधान भूमि अधिग्रहण आदि के कारण जनजातीय आबादी के विस्थापन के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करते हैं।

भारत का रेड कॉरिडोर का क्षेत्र सशस्त्र विद्रोह के लिए जाना जाता है, और यह इलाका हिंसाग्रस्त रहा है। अरुंधती आदिवासियों के हितों के लिए मुखर रहें, यह उनका अधिकार है लेकिन संविधानिक तंत्र को शोषित वर्ग के खिलाफ प्रचारित करने की उनकी कोशिशें भारत की आंतरिक शांति को भंग करती दिखाई पड़ती है। भारत का संविधान अभिव्यक्ति की आजादी को देश के रचनात्मक विकास के लिए जरूरी तो बताता है लेकिन देश की एकता एवं अखंडता की रक्षा के लिए भी सजग है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए में देश की एकता एवं अखंडता को हानि पहुंचाने के प्रयास को देशद्रोह के रूप में परिभाषित किया गया है। देशद्रोह के अंतर्गत शामिल हैं, सरकार विरोधी गतिविधि और उसका समर्थन, देश के संविधान को नीचा दिखाने का प्रयास और कोई ऐसा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, लिखित या मौखिक कृत्य जिससे सामाजिक स्तर पर देश की व्यवस्था के प्रति असंतोष उत्पन्न हो।  

अरुंधती ने अपने एक लेख में कहा था-‘एक मछुआरे के लिए यह मान लेना कितना गलत है कि वह अपनी नदी को अच्छी तरह जानता है।’ दरअसल, अरुंधती को भारत, उसके विरोधाभास, समस्याएं, संविधान और लोकतंत्र को ठीक तरीके जानने और समझने की जरूरत है। वे महात्मा गांधी की भूमिका और उनके कद की आलोचना भी कर चुकी हैं। उन्होंने गांधी के उस संदेश को समझने का प्रयास ही नहीं किया कि सामाजिक न्याय की समस्याओं के हल लोकतांत्रिक और अहिंसा  के रास्ते भी तलाशे जा सकते हैं। अरुंधती रॉय और उन जैसे बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की आजादी का कवच धारण कर संविधानिक ढांचे और लोकतंत्र को अक्सर चुनौती देते हैं। यह उनका अधिकार  हो सकता है, लेकिन देश उनसे बेहतर नागरिक होने की भी अपेक्षा करता है।

डॉ. ब्रह्मदीप अलूने


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