चुनाव परिणाम : जनता में परिवर्तन की ललक
वर्तमान चुनाव परिणामों से तथा मतदान में जनता की हिस्सेदारी के प्रतिशत से ऐसा संकेत मिलता है कि भारतीय राजनीति अस्थिरता के अंतिम दौर में प्रवेश कर चुकी है जिसका उदाहरण किसी एक दल को अपनी बदौलत बहुमत नहीं मिलना है।
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सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा को भी अपने सहयोगियों पर निर्भर रहना पड़ेगा। ऐसा दौर और कितना लंबा चलेगा, कोई भविष्यवाणी फिलहाल संभव नहीं। परंतु यह निश्चित है कि यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि जनमानस इस अस्थिरता को समाप्त करने में किस हद तक सार्थक एवं कारगर भूमिका अदा करता है। वर्तमान चुनाव में मतदाताओं द्वारा ली गई हिस्सेदारी पूर्व में हुए अन्य चुनावों की अपेक्षा कम रही है, तथा चुनाव परिणामों से भी जनता ने अपने परिवर्तन के भूख को बनाए रखने का संकेत सा दिया है।
वैसे परिवर्तन की भूख भारतीय जनमानस में आजादी के बीस वर्ष बाद 1967 से ही प्रारंभ हो चुकी थी। गैर- कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ परंतु राजनीतिक दिशाविहीनता से परिवर्तन को सार्थक एवं गुणात्मक बदलाव में तब्दील नहीं जा सका। कारण था कि गैर-कांग्रेसी सरकारों का नेतृत्व निजी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने कांग्रेस छोड़ के आए लोगों के हाथ में होना। यहीं से प्रतिक्रियावादी ताकतों का उभार भारतीय राजनीति में हुआ जिसके चलते 1977 की लघु क्रांति छोड़ कर गैर- कांग्रेसवाद के पाये पर राजनीतिक दलों द्वारा अब तक अपने को टिकाए रखना है। गैर-कांग्रेसवाद वोटों का समीकरण बैठाने का एक नारा जैसा बन गया है, जिसके माध्यम से जल्दी से जल्दी ताकत बटोरने हेतु भारतीय राजनीति को जातीयता की संकीर्णता में लाकर खड़ा कर दिया गया है और जातीय समीकरण के चलते हिंसा राजनीति का हथियार बन गया। जैसे आज राजनीतिक दलों द्वारा भिन्न भिन्न नामों से हिंसक सेना (हिन्दू वाहिनी, आदम सेना, बजरंग दल तथा अन्य क्षेत्रीय सेनाएं) तैयार करना।
इस प्रवृत्ति को विनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय का नारा देकर जाने-अनजाने और मजबूत किया। मंडल के मुद्दों को लेकर वीपी सिंह राष्ट्रीय मोच्रे के सबसे बड़े घटक के रूप में ऐसे चक्रव्यूह में फंस गए थे जहां पिछड़ों, हरिजनों व मुसलमानों को न्याय दिलाने के नाम पर समाज को छोटे-छोटे दायरों में बांटने का प्रयास किया गया। ऊंची जातियों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़े, हरिजन और मुसलमान समुदाय का चुनावी समीकरण बनाने की सामाजिक न्याय के नाम पर कोशिश की जाने लगी है। चुनावी समीकरणों को राजनीतिक दल विचारधारा के रूप में जनता के सामने पेश करते चले आ रहे हैं, जिसकी शुरुआत कांग्रेस पार्टी में निजी महत्त्वाकांक्षाओं को संजोए लोगों द्वारा शुरू की गई थी। यही कांग्रेस संस्कृति है जो आजादी के बाद से भारतीय समाज को अस्थिर और हिंसक बनाए हुए है।
कांग्रेस पार्टी के पास एक ही नारा है कि स्थिर सरकार मात्र वह ही दे सकती है, जबकि जनता 1967 से ही लगातार इस नारे के विरोध में मत देती रही है। 1991 के चुनाव में किसी को सरकार बनाने योग्य बहुमत न देना।
1998 में भी जनता ने देश को स्थिर सरकार नहीं दी। और वह स्पष्ट जनादेश न मिलने के कारण वह सरकार केवल तेरह महीने की चल पाई। 1999 में भी जनादेश गठबंधन (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) सरकार का मिला। इसी प्रकार 2004 में भी किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला। लेकिन इस बार वामपंथी राजनीतिक दलों के समर्थन से यूपीए ने सरकार बनाई और इसने 2014 तक दो कार्यकालों के लिए भारत पर शासन किया।) 2014 के नतीजे जरूर अलग रहे। जनता ने स्थिर सरकार के लिए जनादेश दिया। जो भाजपा की अगुवाई में एनडीए के रूप में अगले दो कार्यकाल 2024 तक चली। 2024 में अचानक मोदी के इर्द-गिर्द बनी अजेय छवि खत्म हो गई। मतदाताओं ने यथास्थिति को लेकर असंतोष दिखाया। अब इस नई सरकार को सत्ता में आने के बाद पहली बार गठबंधन के पुराने सहयोगियों पर निर्भर रहना होगा।
दूसरी तरफ इस जनादेश से कांग्रेस नीत विपक्ष को भी नई ऊर्जा मिलेगी। इससे यह स्पष्ट होता है कि जनता का राजनीतिक दलों पर से विश्वास उठ गया है और उनके हर चुनावी नारे के विपरीत मतदान करती चली आ रही है। और अपनी परिवर्तन की भूख को बनाए हुए है। असल में आजादी के 77 साल बाद (इस अवस्था में आदमी पूर्ण वृद्धावस्था में हो जाता है) भी राजनीतिक प्रक्रिया का विकास नहीं हो पाया। किसी भी दल का अखिल भारतीय स्वरूप अब नहीं रहा। दल के स्थान पर नेताओं के गिरोह बन गए। जिसके कारण वैचारिक और सैद्धांतिक प्रतिबद्धता समाप्त हो गई है और उसका स्थान निजी महत्वाकांक्षाओं ने ले लिया है। (अभी तक हमारी कोई सर्वमान्य शिक्षा नीति नहीं बन पाई, जो व्यक्ति के विकास का प्रथम चरण होता है।)
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