पुणे पोर्श कांड : अपराध तो बालिग जैसा है
पूरे हिन्दुस्तान में चर्चा है कि यह कैसा कानून है जिसमें दो 24 वर्षीय युवाओं, इंजीनियर्स की 150-200 की स्पीड में, करोड़ों की पोर्श कार से रात में दो बाइक सवारों को फुटबॉल की तरह उड़ा देने पर 17 वर्ष 8 महीने के युवा को नाबालिग समझ कर, पुलिस स्टेशन से ही बेल देकर रिहा करने और 300 शब्दों में निबंध लिखने की सजा देकर क्लीन चिट दे दी।
पुणे पोर्श कांड : अपराध तो बालिग जैसा है |
सवाल है क्या 17 वर्ष 8 महीने का लड़का बालिग है या नाबालिग? तो इसका जवाब जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 में किए गए संशोधन के अनुसार सेक्शन 18 में, 1-9-2022 से यह बदलाव आया कि 16 वर्ष या उससे भी छोटा लड़का-लड़की यदि जघन्य अपराध करता है तो जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड उसको कोर्ट में स्थानांतरित कर देगा, जहां वह एक बालिग की तरह ट्रायल के सम्मुख होगा। साथी ही 2 वर्ष या ज्यादा सजा वाले प्रावधान में सजा का अधिकारी होगा। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों के अनुसार ‘मोटर व्हीकल एक्ट’ में अधिकतम सजा के प्रावधान भी वह जनरल आईपीसी में जघन्य अपराध की तरह सजा ही देगा-कम नहीं। अब इससे जघन्य अपराध क्या हो सकता है?
जनता का आक्रोश सही है। मैंने कभी कहा था-कानून का सही पालन करने वालों के साथ, मेहनत करने वालों के साथ, बिना रसूख वालों, गरीब व्यक्तियों को कानून के अधिकारी, पुलिस, निचली अदालतें, अदक्ष वकीलों के ज्ञान और कर्तव्य के प्रति असम्मान होने के कारण ही यहां का कॉमन आदमी जो निदरेष है वह जेलों में है। आजादी के बाद से ही, पुराने ब्रिटिश कानून की प्रक्रिया को अपना लिया गया है जो आज भी व्यवहार में आ रहा है। जैसे कानून को चलाने वाले उसी युग के कर्ताधर्ता हैं, जिनका काम निदरेष पर अन्याय करना है। कानून बदले पर कानून के ज्ञान रखने वाले, रूल करने वाले उसका सशोधन भी नहीं पढ़ते। गलत आर्डर देते रहते हैं। यह संशोधन सितम्बर 2022 का है। किसी ने इसे पढ़ा क्यों नहीं? पुलिस कमिश्नर ने कहा कि इसे नाबालिग किस आधार पर ट्रीट किया। क्या वह भी अरबपति पिता, दादा के प्रति डर था कि जिसका संबंध छोटा राजन से था। नाबालिग को 300 शब्दों का निबंध लिख, बेल पर जाने क्यों दिया?
जुवेनाइल जस्टिस एक्ट बोर्ड ने क्यों नहीं अभी ही यह निर्णय दिया कि वह 16 से ऊपर का है। 16 से नीचे भी होता तो उसे गंभीर अपराध के आधार पर रेगुलर कोर्ट को रेफर किया जाता जहां उसे वर्षो तक बेल नहीं होती और आजीवन कैद मिलती। उसे रिमांड होम क्यों भेजा, फैसला 5 जून तक क्यों टाल दिया? क्या वह लड़का जो कानूनन बालिग है, रिमांड होम में, चंद दिनों में, सुधर जाएगा, एक संत होकर निकलेगा, उसके अभिमान भरे क्रिमिनल माइंड में बदलाव आएगा? यह जस्टिस बोर्ड के हसीन सपनों के सिवा कुछ नहीं है। क्यों हम भी यह नहीं सोचे कि वह पढ़ता नहीं, इस पद के बुलाए अयोग्य अपराधी के रसूख से प्रभावित है? इस देश का जस्टिस सिस्टम को तीन लेयर का बनाया गया-पहले ट्रायल कोर्ट, फिर हाईकोर्ट, उसके बाद अंतिम सुप्रीम कोर्ट। यह कई लेयर सिस्टम है। पहले लेयर पर पुलिस है-वह कानून नहीं जानती, जानने पर भी लागू नहीं करती, मनमाने तरीके से निर्णय लेकर काम करती है।
खुद मैंने, अपनी गाड़ी चोरी होने की रिपोर्ट दर्ज कराने पुलिस स्टेशन पहुंची तो जब तक मैंने अपना परिचय नहीं दिया तो एक घंटे तक कम्पलेन नहीं लिया गया। उसके बाद जब मैंने अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो तुरंत मुझे थाना इंचार्ज के कमरे में बैठाकर आनन-फानन में मेरी शिकायत दर्ज की, रिपोर्ट घर पहुंचाने को कहा गया। वैसे भी अब कई, ट्रिब्यूनल्स हैं, वे गलती करें तो हाईकोर्ट, उसके बाद कई सलों तक मुकदमा चलने पर खारिज होने तक सुप्रीम कोर्ट केस लड़ा जाता है।
इस प्रक्रिया में 30-32 साल आराम से गुजर जाते हैं, दूसरी-तीसरी पीढ़ी केस लड़ती है। जेल तो खुद ही नरक बन चुकी है। गरीब लोग छोटे अपराधों में 32-35 वर्ष तक रिहाई के बाद भी ट्रायल नहीं होने पर भी जेलों में पड़े रहते हैं, कारण उनका कोई नहीं है जो ज्यादा फीस देकर वकील रखे।
उसकी तुलना में रसूख वालों का मुकदमा नीचे से ऊपर तक किस प्रकार हल्के तौर पर ट्रीट किया जाता है, जगजाहिर है। संक्षेप में कहें तो कभी-कभी किसी की आत्मा जाग्रत हो या भाग्य पलटता है तो गरीब को न्याय नसीब हो जाता है। वाकई, पुणे की घटना को जानने-समझने के बाद इस व्यवस्था में दम घुटता है। एक वकीलों की सोसाइटी के सामने अचानक एमसीडी, डीडीए, सरकारी फुटपाथ से आज्ञा लेकर एक रेस्टोरेंट खुलता है मालिक उसे अपनी बपौती समझ सुबह 9 से रात तीन बजे तक, बिना किसी परमीशन पर, रेजिडेंसियल सोसाइटी के सामने तेज म्यूजिक और हुड़दंग करता है, विगत 3-4 वर्षो से पुलिस हाईकोर्ट पहुंचने पर भी न्याय नहीं मिलता है। पुलिस कभी विक्टिम के पास आकर उसका हालचाल नहीं पूछती। हाईकोर्ट के आदेश पर भी नहीं।
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