बेहतर दुनिया : अमन- शांति की बुनियाद मजबूत करें

Last Updated 21 Apr 2024 01:32:07 PM IST

गाजा में, यूक्रेन में, सुडान में और कितने ही स्थानों पर आज विश्व बुरी तरह हिंसा से त्रस्त है। महाविनाशक हथियारों की ऐसी बहुत खतरनाक होड़ पहले से और तेज हो रही है जो दुनिया को किसी बड़े संकट की ओर ले जाएगी।


जो अंतरराष्ट्रीय संस्थान विश्व शांति और निशस्त्रीकरण के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं, वे कभी असहाय नजर आते हैं तो कभी केवल चिंता प्रकट करने या बयानबाजी तक ही अपनी जिम्मेदारी को समेट लेते हैं।

इस बिगड़ती स्थिति को संभालना बहुत जरूरी है। उम्मीद की एक किरण हम सब जनसाधारण अपने प्रयासों से भी ला सकते हैं। बेशक, हम जनसाधारण प्रत्यक्ष रूप से बड़े युद्ध समाप्त नहीं कर सकते पर अपने आसपास की हिंसा को समाप्त कर या न्यूनतम कर एक अमन-शांति पर आधारित दुनिया बनाने के लिए अच्छी शुरुआत जरूर कर सकते हैं। दुनिया आखिर करोड़ों परिवारों के मिलने से ही तो बनती है, लाखों समुदायों के मिलने से ही तो बनती है। यदि परिवार और समुदाय स्तर से ही अहिंसक विश्व बनाने की बड़ी पहल हो तो इसका असर दूर तक भी जा सकता है।

यदि परिवार और समुदाय के स्तर पर हम अहिंसा की जो सीख प्राप्त करते हैं, उसका उपयोग आगे, अधिक व्यापक स्तरों पर अमन-शांति के प्रयासों के लिए करते रहें। इस सोच के मूल में यह समझ है कि हिंसा मनुष्य के दुख-दर्द का एक प्रमुख कारण है। हर मनुष्य दुख-दर्द कम करना चाहता है और इसके लिए एक प्रमुख मार्ग यह है कि वह अपने भीतर की हिंसा और अपने आसपास की हिंसा को कम करे। यह मार्ग हम सबको उपलब्ध है, पर फिर भी यह प्राय: उपेक्षित है। यहां तक कि अपने भीतर की हिंसा को एक समस्या के रूप में पहचानने की प्रवृत्ति भी कम ही नजर आती है। पर वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य के भीतर की हिंसा और आसपास की हिंसा अधिकांश समाजों में एक बड़ी समस्या है। भारत हो या अमेरिका इसकी एक बड़ी अभिव्यक्ति घरेलू हिंसा के बेहद चिंतित करने वाले आंकड़ों में उपलब्ध होती है।

अमेरिका जैसे ‘विकसित’ समाज में भी एक वर्ष में 110 से 120 लाख व्यक्ति घरेलू हिंसा अपने नजदीकी साथी (इंटीमेट पार्टनर) की हिंसा का शिकार होते हैं (प्रति मिनट 20) और इनमें से बहुत बड़ा हिस्सा महिलाओं का है। 19 प्रतिशत घरेलू हिंसा की घटनाओं में किसी न किसी हथियार का उपयोग भी होता है। घरेलू हिंसा की बड़ी वारदात को रहने दें तो भी कितने ही दिन जनसाधारण के ऐसे गुजरते हैं जिसमें छोटी-छोटी बातों में, क्रोध के आ जाने से जो कहा-सुनी हो जाती है उसके कारण दिन खराब हो जाता है, दुख भी होता है। हमारे समाज में परिवार में प्रेम और लगाव बहुत है, पर झगड़े भी कम नहीं हैं-फिर चाहे  पति-पत्नी के झगड़े हों, भाई-भाई या सास-बहू के।

अंत में अधिक सहना तो महिलाओं और बच्चों को ही पड़ता है, जबकि घरेलू हिंसा के दौर में बच्चे जो सहते हैं उसका अहसास भी कई बार व्यस्क सदस्यों को नहीं होता। बाद में मन में आता है कि ओह, क्रोध में हम क्यों नाहक अपने प्रियजनों को परेशान करते हैं और स्वयं भी होते हैं, पर यह सोचने के बाद भी बार-बार ऐसी वारदात होती ही रहती हैं। इसकी वजह यह है कि अपने भीतर की हिंसा को पहचानने और उसे कम करने के जरूरी प्रयास नहीं होते। इसके साथ कहीं न कहीं आधिपत्य की भावना जुड़ी होती है। यह लिंग आधारित हो सकती है (पुरुष द्वारा महिला पर आधिपत्य समझना), आयु-आधारित या धन-संपत्ति आधारित हो सकती है।

वास्तव में अहंकार, क्रोध, आधिपत्य, हिंसा यह सब आपस में जुड़े हुए हैं। फिर इन के साथ यदि नशे की प्रवृत्ति जुड़ जाए, विशेषकर शराब के नशे  की प्रवृत्ति, तो इन सब की अभिव्यक्ति और भयानक रूप में हो सकती है। यदि इस सब को एक गंभीर समस्या के रूप में समझ कर इसे कम करने का प्रयास होगा तो विभिन्न व्यक्तियों और परिवारों में दुख-दर्द, परेशानी, तनाव, अपमान, आहत होने के अहसास और अवसाद में बहुत कमी आ सकती है, तथा दूसरी ओर खुशहाली, परस्पर प्रेम और सम्मान में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।

इस तरह समाज की सबसे छोटी पर बुनियादी इकाई के स्तर पर अहिंसा के प्रयासों को जो सफलता मिलेगी, उसके आधार पर जनसाधारण को, महिलाओं और पुरुषों को, युवाओं और छात्रों को प्रेरित कर समुदाय के स्तर पर अधिक व्यापक भूमिका के लिए तैयार किया जा सकता है। समुदाय में जो धर्म, जाति, लिंग आदि के स्तर पर भेदभाव हैं, वह भी मन के अंदर की हिंसा की एक अभिव्यक्ति है। हिंसा, आधिपत्य, अहंकार के मिले-जुले असर से किसी अन्य मनुष्य को धर्म, जाति के आधार पर हीन भावना से देखा जाता है।

धर्म, जाति उप-जाति के आधार पर किसी को हीन मानना या उससे भेदभाव करना बुनियादी तौर पर अनुचित और अन्यायपूर्ण है पर जब सामुदायिक स्तर पर लोगों के दिलों में हिंसा, आधिपत्य और अहंकार की प्रवृत्ति है तो वह इन अनुचित रूपों में प्रकट होती रहती है जिससे अंत में क्षति पूरे समुदाय की ही होती है। जिनसे भेदभाव या अन्याय होता है वे तो आहत ही होते हैं, किन्तु जो अन्याय और भेदभाव करते हैं, वे भी सही मानवीय विकास की संभावनाओं से दूर हो जाते हैं, उनका सही विकास नहीं होता है और वे संकीर्ण विचारों के जाल में फंसे हुए अपने और अपने निकटस्थों के लिए कई समस्याएं उत्पन्न करते रहते हैं।

दूसरी ओर अहिंसा और अमन-शांति का संदेश सही ढंग से पूरे समाज में पहुंचता है तो समुदाय के सभी लोगों की उचित न्यायसंगत प्रगति के अवसर बढ़ते हैं, पूरे समुदाय की एकता और मजबूती बढ़ती है, खुशहाली बढ़ती है। इस तरह के सामुदायिक प्रयास पूरे देश में होते हैं तो पूर्ण राष्ट्र की खुशहाली, समता, एकता और प्रगति मजबूत होती है। यह इस रूप में मजबूत होती है कि अपने सभी लोगों में प्यार और सद्भावना बढ़ते ही हैं, पर देश की यह बढ़ती एकता और मजबूती किसी अन्य देश के लिए खतरा नहीं बनती है क्योंकि यह प्रगति मूलत: अमन-शांति और अहिंसा पर आधारित है।

इस तरह यदि राष्ट्र की प्रगति होती है तो राष्ट्र की यह क्षमता भी साथ-साथ बढ़ती है कि वह हिंसा से बुरी तरह आहत दुनिया को अमन-शांति की राह दिखा सके। कल्पना कीजिए कि यदि विभिन्न देश इस तरह समाज की छोटी इकाई से ऊपर तक अमन-शांति और अहिंसा के प्रसार का प्रयास निरंतरता से करें तो क्या पूरे विश्व में अमन-शांति की संभावना नहीं बढ़ सकती है? क्या युद्ध की संभावना को न्यूनतम करते हुए विनाशक और महाविनाशक हथियारों की होड़ और दौड़ को भी नहीं रोका जा सकता? यह सब कोरी कल्पना नहीं है, वास्तविक संभावना है। कहा भी गया है, बहुत सी बड़ी उपलब्धियों की शुरुआत छोटे स्तर पर ही होती है।

भारत डोगरा


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