वैश्विकी : संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन
संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन की सदस्यता को लेकर रखा गया प्रस्ताव अमेरिका के वीटो के कारण पारित नहीं हो सका। प्रस्ताव के पक्ष में बारह मत पड़े और केवल अमेरिका ने इसके विरोध में वोट दिया।
वैश्विकी : संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन |
ब्रिटेन और स्विटजरलैंड ने मतदान में भाग नहीं लिया। जातीय एकजुटता के कारण ब्रिटेन अमेरिका का विरोध नहीं कर सकता लेकिन स्विटजरलैंड का रवैया विचारणीय है। स्विटजरलैंड आम तौर पर पूरी तरह तटस्थता का रवैया अपनाता रहा है, लेकिन फिलिस्तीन की सदस्यता पर उसका मौन रहना समझ से परे है। इससे यह पता लगता है कि यूक्रेन संघर्ष के बाद दुनिया में शांति की बजाय युद्ध की भावना बलवती हो रही है। अमेरिका के दबाव में जापान और स्केंडिनेवियाई देशों स्वीडन और नाव्रे जैसे देशों ने भी संघर्ष और युद्ध की मनोवृत्ति को अपनी विदेश नीति का मानो हिस्सा बना लिया है।
करीब पैंतीस हजार लोगों की मौत और लाखों लोगों के घायल होने के बावजूद अमेरिका मानवीय रवैया अपनाने की बजाय इजराइल के युद्ध प्रयासों का समर्थन कर रहा है। दो राज्यों (इजराइल और फिलिस्तीन) की स्थापना के पक्ष में बयानबाजी करने के बावजूद यह जाहिर है कि अमेरिका का सत्ता प्रतिष्ठान इजराइल की ही तरह स्वतंत्र फिलिस्तीन के पक्ष में नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव के दौर में मतदाताओं के दबाव में बाइडन प्रशासन फिलिस्तीन में मानवीय संकट को लेकर बयानबाजी अवश्य कर रहा है, लेकिन कोई ठोस कदम उठाने में दिलचस्पी नहीं रखता। अमेरिका में फिलिस्तीन के पक्ष में युवा वर्ग और छात्र समुदाय सड़कों पर उतरा है। लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान इसे लगातार नजरअंदाज करता रहा है।
कुछ विश्लेषक आरोप लगाते हैं कि अमेरिका में ‘यहूदी लॉबी’ हावी है। कोई भी राष्ट्रपति इस लॉबी का विरोध नहीं कर सकता। इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू स्वतंत्र फिलिस्तीन राज्य के पूरी तरह खिलाफ हैं। निकट भविष्य में कभी फिलिस्तीन पूर्ण एवं स्वतंत्र राज्य बन सकेगा, इसकी संभावना नहीं है। इस बीच, पश्चिम एशिया में संघर्ष के इस मुख्य मुद्दे का समाधान हो सकेगा, इसकी संभावना अभी नहीं है।
ईरान और इजराइल के बीच संघर्ष ने पश्चिम एशिया के पूरे परिदृश्य को भयावह कर दिया है। चिंता की बात यह है कि अमेरिका में राजनीतिक नेतृत्व अब ईरान-रूस-चीन के शैतानी त्रिगुट की बात कर रहा है। इसमें उत्तर कोरिया को भी शामिल किया जा सकता है जिसके बाद यह शैतानी क्वाड बन जाएगा। एक क्षेत्रीय मुद्दा विश्व नेताओं की लापरवाही के कारण किस तरह विश्वव्यापी अशांति का कारण बन सकता है, इसका यह सटीक उदाहरण है। फिलहाल, ईरान और इजराइल के बीच अखाड़े में युद्ध का पहला राउंड खत्म हो गया है और दोनों पहलवान सुस्ताने की मुद्रा में हैं। पूरी संभावना है कि पूरे दम-खम के साथ वे फिर अखाड़े में उतरेंगे। विश्व समुदाय दर्शक गैलरी से तब तक तमाशा देखेगा जब तक कि यह भयावह खेल उनके लिए प्रत्यक्ष खतरा नहीं बनता।
हाल के महीनों में रूस ने इजराइल के खिलाफ तीखे तेवर अपनाए हैं। उसने इजराइल के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने तक की मांग की है। वास्तव में रूस इजराइल से अधिक उसके पैरोकार अमेरिका को निशाना बना रहा है। भारत ने ईरान और इजराइल के संघर्ष में अपनी संतुलन की नीति को कायम रखा है। जिहादी आतंकवाद का सामना करने वाला भारत इजराइल का एक स्वाभाविक सहयोगी है, लेकिन साथ ही भारत ग्लोबल साउथ के अन्य देशों की तरह फिलिस्तीन का समर्थक भी है। ईरान के बारे में भी भारत इजराइल का साथ देने की स्थिति में नहीं है।
ईरान में इस्लामी क्रांति के बावजूद भारत और ईरान एक ही सभ्यागत भू-भाग के हिस्से हैं। सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से अरब देशों की तुलना में ईरान हमारे अधिक नजदीक है। साथ ही, मध्य एशिया और रूस तक संपर्क सुविधा के लिहाज से भी ईरान का केंद्रीय महत्त्व है। ईरान में चाबहार बंदरगाह का एक हिस्सा भारत संचालित करता है। अंतरराष्ट्रीय दक्षिण-उत्तर परिवहन गलियारा इसी बंदरगाह पर निर्भर है। अमेरिका यदि चाबहार बंदरगाह के संदर्भ में प्रतिबंध लगाता है, तो यह भारत के लिए बहुत चिंता की बात होगी।
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