सामयिक : जाति शरणम् गच्छामि
बिहार में जाति आधारित जनगणना की रपट जारी कर दी गई है। सब मिला कर इसे लेकर एक सन्नाटा है। संभवत: अभी लोग इसका अध्ययन कर रहे हैं।
सामयिक : जाति शरणम् गच्छामि |
प्रतिक्रिया देर से भी आ सकती है। वर्षो से जाति-आधारित जनगणना की मांग राजनीति के लोकदली समाजवादी खेमे से उठायी जा रही थी। यह पक्ष जाति-प्रश्न को भारतीय यथार्थ का प्रधान पक्ष मानता है और इनका मानना है कि जातियों की स्थिति सार्वजनिक हो जाने से नीतियां बनाने में सुविधा होगी। मनमोहन सिंह सरकार ने इसे स्वीकार लिया था और 2013 में इसे सेन्सस के साथ जोड़ने का निर्णय ले लिया था।
2014 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किन्हीं कारणों से इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसकी एक प्रतिक्रिया बिहार से हुई जहां विधानमंडल ने सर्वसम्मति से जाति आधारित जनगणना का प्रस्ताव स्वीकृत कर केंद्र को भेजा। सिलसिले के आखिर में बिहार सरकार ने अपने साधनों से प्रांतीय स्तर पर इसे करने का निर्णय लिया; किया भी। इसी का नतीजा इस रपट का सार्वजानिक किया जाना है। भारत में जाति आधारित जनगणना का आरम्भ 1881 से हुआ। ब्रिटिश सरकार का आखिरी सेन्सस 1931 में हुआ, जिसमें जाति गणना हुई थी। 1941 में विश्व युद्ध के कारण जनगणना कार्य स्थगित रहा था। उसके बाद भारत आजाद हुआ। भारतीय नेताओं, जो अब नए भारत के कर्णधार थे, ने जाति-जनगणना को गैरजरूरी माना। 1951 में इसे बंद कर दिया गया।
जाति, जातिप्रथा, जातिवाद, वर्ण व्यवस्था आदि हमारे भारतीय समाज में बहस के विषय रहे हैं। जाति यानी जन्म और वर्ण यानि रंग। जब जोर जन्म पर होता है तब जाति और जब रंग पर होता है तब वर्ण शब्द का व्यवहार होता है। जातियां कई हजार हैं, लेकिन वर्ण केवल चार हैं। जातियां स्वाभाविक रूप से पहले बनीं। बाद में वर्णव्यवस्था के तहत उनका चार वर्णो में समायोजन हुआ। वर्णव्यवस्था का आधार और उसकी रचना एक जटिल प्रक्रिया है। मोटे तौर पर यह शारीरिक कार्य और मानसिक कार्य के बीच विभाजन है। ब्राह्मण हर तरह के शारीरिक कार्य से मुक्त किए गए हैं। उन्हें मानसिक कार्य करने हैं। क्षत्रिय पहले तो कृषि और सैनिक कार्य करते थे, लेकिन बाद में केवल सैनिक कार्य के लिए रह गए।
वैश्य व्यापार करते थे। शूद्र का काम किसानी और दस्तकारी का था। इसके अलावे जाति-बाहर (आउट कास्ट) का एक बड़ा वर्ग था। बाद में इन्हें पंचम वर्ण कहा गया। प्रतिलोम विवाहों से जनित लोग प्राय: इस खांचे में डाल दिए जाते थे। वर्णव्यवस्था का अनेक सामाजिक दार्शनिकों ने समय-समय पर विरोध किया। इसका सबसे खराब पक्ष था कि पेशा चुनने का अधिकार व्यक्ति को नहीं था। परंपरा से चले आ रहे पारिवारिक पेशे को करने के लिए व्यक्ति बाध्य था। इससे ऊब, कार्य-शैथिल्य और नतीजतन उत्पादन में ह्रास होता था। पेशे का उल्लंघन अधिकतर वे लोग करते थे, जो शारीरिक श्रम से जुड़े थे। इसलिए इसका नतीजा हुआ कि समाज में ब्राह्मणों का प्रभुत्व स्थापित होने लगा। अब इतने रोज बाद एक तामझाम के साथ जाति का जिन्न एकबार फिर हमारे कंधों पर है। इस बार इसे समाजवादी धारा के नेताओं ने कार्यान्वित किया है, जिसमें कांग्रेस का समर्थन है। अब बिहार में जब इस गणना के नतीजे घोषित कर दिए गए तो एकबारगी इस सिलसिले का अंत भी हो गया।
अब सवाल यह है कि इन नतीजों का सरकार क्या उपयोग या दुरुपयोग करती है। 1931 में हुई जाति आधारित जनगणना में जिलेवार जो स्थिति थी, उसके बाद बिहार की सामाजिक डेमोग्राफी में 09 फीसद अनुसूचित जनजाति के लोग थे। सन 2000 में छोटानागपुर हिस्से के विभाजन के बाद बिहार में केवल एक फीसद आदिवासी समुदाय रह गया। आठ फीसद रिक्त हुए जगह पर यहां की जातियां अपने अनुपात में संख्या स्तर पर समृद्ध हुई। यादव सबसे अधिक संख्या वाली जाति थी, जो अकेले ग्यारह फीसद थी। उसके दो से तीन फीसद बढ़ जाने का अनुमान था। नतीजा यही आया है। वह 11 से बढ़ कर 14 फीसद हो गई है। अन्य जातियों में भी इसी अनुपात में विस्तार हुआ है। कोई चौंकाने वाला नतीजा नहीं है। मैंने कोई बीस वर्ष पूर्व इस डेमोग्राफी का अनुमान एक लेख में किया था। मेरा यह अनुमान था कि तथाकथित उच्च जातियों की जनसंख्या घट सकती है। इसका कारण उनका बाहर रोजगार हासिल करना और परिवार नियोजित रखना है।
परिणाम ऐसा ही है। इस जाति आधारित जनगणना का सकारात्मक पक्ष मेरी दृष्टि में कुछ नहीं हैं। यह कबायली चेतना और कुंठा का परिणाम है। आज हम इस नजरिए से समाज निर्माण नहीं कर सकते। जाति को वर्गीय नजरिए से हमें देखना ही होगा। आंबेडकर और अन्य संविधान निर्माताओं ने जाति को वर्गीय नजरिए से ही देखा था। आंबेडकर ने अपनी किताब ‘जातिवाद का उच्छेद’ में जातिवाद को हर हाल में समाप्त करने की अपील की है। संविधान में उन्होंने वर्ण को वर्गीय स्वरूप दे दिया। अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग की चर्चा है। ये नए सामाजिक वर्ग हैं। समाजवादियों के लोकदली हिस्से ने इसे मनुवादी सांचे में लाने की कोशिश की है। इसी बिहार सरकार ने 2011 में सवर्ण आयोग बनाया था। यह जाति-जनगणना उसी चेतना का विस्तार है। इसका राजनीतिक परिणाम भाजपा के पक्ष में जाने का अनुमान है। बिहार में भाजपा ने पहले से ही स्वयं को पिछड़ी जातियों पर केंद्रित किया हुआ था। कुछ समय पूर्व तक नीतीश कुमार की राजनीति भाजपा की भागीदार थी। आज भाजपा इस राजनीति का अकेले प्रतिनिधित्व कर रही है।
चुनावों में यादव-मुस्लिम वोट बैंक एक साथ होंगे और शेष का ध्रुवीकरण इसके प्रतिरोध में होगा, ऐसा अनुमान है। आर्थिक समृद्धि के तेज दौर में जाति का बहुत अधिक राजनीतिक उपयोग संभव नहीं है। जनता को आर्थिक समृद्धि का हिस्सा बनाना होगा। सरकारी नौकरियों में आरक्षण तीस साल पहले कुछ बड़ा अर्थ रखता था। आज वैसा नहीं है। रोहिणी आयोग की रपट को भाजपा कभी सदन में रख सकती ह। बिहार की इस जनगणना के आधार पर यदि उसने कुछ जातियों को पिछड़े वर्ग से हटा कर सामान्य श्रेणी में ला दिया कि वहां भी तो आरक्षण की व्यवस्था है ही, तब इसका राजनीतिक परिणाम क्या होगा? 1990 में मंडल आयोग प्रसंग के बाद से भाजपा का विस्तार होता रहा है। इस जाति-गणना से भी उसे लाभ पहुंचेगा। समाजवादियों ने स्वयं अपनी कब्र खोद ली है।
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