समावेशी विकास : मौलिक सोच से निकलेगी प्रेरक राह
हम उस देश के वासी हैं जिसकी बहुत पुरानी सभ्यता है, तरह-तरह के मजहबों और जातियों और नस्लों की साझी विरासत है।
समावेशी विकास : मौलिक सोच से निकलेगी प्रेरक राह |
इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि इस साझी सभ्यता ने विश्व को बहुत कुछ दिया है। इस तरह की विरासत और कई संस्कृतियों के मिलन वाले देश में इतना आत्मविास होना चाहिए कि यदि विश्व में कुछ बहुत गंभीर गलतियां हो रही हों तो वह कहे कि यह अनुचित है, हमें इससे अलग राह तलाशनी है और अपनानी है।
इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि मौजूदा राह पर चलते हुए दुनिया पर्यावरण, विषमता, युद्ध, महाविनाशक हथियारों, सामाजिक टूटन और तनाव के गंभीर संकट में फंस चुकी है। हमारे देश और समाज में इतनी मौलिकता होनी चाहिए कि हम इस संकट के कारणों की पहचान करें तथा इनसे अपने को अलग कर अपनी ऐसी राह निकालें जिससे हमारी भलाई हो तथा साथ ही अन्य देशों को भी प्रेरणा मिले कि वह मौजूदा संकटों से बचाने वाली राह तलाशने का प्रयास करें। इस प्रयास के लिए चाहिए मनुष्य की भलाई करने की क्षमता में गहरा विास और मौलिक सोच। आज की दुनिया की यह हालत है कि वह बहुत तेजी से दौड़ रही है पर उसे यह नहीं पता कि वह किस दिशा में दौड़ रही है। यदि दिशा ही सही नहीं है तो भटकते ही रह जाएंगे। यदि लक्ष्य ही सही नहीं है तो उस ओर दौड़ लगाने से तो नुकसान ही होगा। अत: इस बारे में बहुत गहराई से सोचना बेहद जरूरी है कि आखिर, हम कैसा देश चाहते हैं। हमारे सबसे महत्त्वपूर्ण और मूल उद्देश्य क्या हैं?
हमारा पहला उद्देश्य तो यह है कि हम धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, क्षेत्र के भेदभाव के बिना समान रूप से अपने देश के सभी लोगों की भलाई चाहते हैं। हम चाहते हैं कि वे सभी किसी बुनियादी जरूरत से वंचित न रहें। सभी को संतोषजनक भोजन, वस्त्र, आवास, साफ पानी और हवा उपलब्ध हो। वे आपसी सहयोग प्रेम और मित्रता से रहें तथा उन्हें अपनी रचनात्मक क्षमताएं विकसित करने के भरपूर अवसर मिलें। दूसरा मूल उद्देश्य यह है कि हम केवल वर्तमान पीढ़ी की भलाई नहीं चाहते हैं अपितु आने वाले पीढ़ियों की भलाई के लिए भी उतना ही प्रयास करना चाहते हैं। अपने बच्चों और उनके आगे की पीढ़ियों की चिंता हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? तीसरा मूल उद्देश्य यह है कि हम केवल मनुष्यों की भलाई नहीं चाहते हैं अपितु जीवन के सभी रूपों पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों, जल-जीवों आदि की भलाई भी चाहते हैं और उनके आश्रय स्थलों वनों, नदियों, समुद्रों आदि की भी रक्षा करना चाहते हैं।
चौथा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है कि हम अपने देश के सब लोगों और जीवों की भलाई चाहने के साथ पूरी दुनिया की भलाई चाहते हैं। अपने देश के लोगों की समृद्धि के लिए हम किसी अन्य देश को लूटना नहीं चाहते और उन पर हमला करना नहीं चाहते। इन चारों मूल उद्देश्यों में आपसी समन्वय बनाना बहुत जरूरी है। इन पर गंभीरता से विचार कर इनका निचोड़ निकाल कर हमें व्यावहारिक नीतियां निकालनी हैं। जब हम यह स्वीकार करते हैं कि हमें सभी लोगों की भलाई, भावी पीढ़ियों की भलाई, जीव-जंतुओं की रक्षा पर ध्यान देना है तो इसका स्वाभाविक निष्कर्ष यह हुआ कि संसाधनों पर चंद लोगों का नियंतण्रया चंद लोगों का अधिक भोग-विलास का जीवन इस उद्देश्य से मेल नहीं रखता। बहुत भोग-विलासिता की जीवन-शैली होगी तो इसका वन, हवा, पानी सब पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, भावी पीढ़ियों के जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, अन्य जीव-जंतुओं का जीवन और उनके आश्रय स्थल खतरे में पड़ेंगे। अत: इन चारों उद्देश्यों को प्राप्त करना है तो सादगी और समता के जीवन मूल्यों को स्वीकार करना बहुत जरूरी है।
बुनियादी सुधार के किसी कार्यक्रम में चार अनिवार्यताओं को ध्यान में रखना होगा। पहली बात तो यह है कि देश की समस्याओं के साथ विश्व की समस्याओं को भी ध्यान में रखना होगा। आज विश्व निश्चय ही अनेक स्तरों पर गंभीर संकट से त्रस्त है। विश्व स्तर की ऐसी पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं, जैसे ओजोन परत के लुप्त होने की समस्या, जलवायु के गर्म होने की समस्या और उससे जुड़ी समुद्रों के जल स्तर के बढ़ने की संभावना, जो दुनिया में पल्रयकारी विनाश ला सकती हैं। साम्राज्यवाद लुप्त होने के स्थान पर अपना सिर उठाए घूम रहा है और पेटेंट कानून, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रसार, विदेशी कर्ज से जुड़ी शतरे, खनिजों की लूट, अंतरराष्ट्रीय व्यापार में मनमानी आदि मसलों पर बेहद तीखे तेवर अपना रहा है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपने इतिहास को वास्तव में जानने, अपनी विरासत को पहचानने और अपनी गलतियों से सीखने के निष्ठावान प्रयास से ही कोई सार्थक कार्यक्रम भविष्य के लिए बन सकता है। आज यह कहना इसलिए और भी जरूरी हो गया है क्योंकि पिछले कुछ वर्षो में इतिहास को गलत पढ़ने के कारण, शायद जान-बूझ कर गलत पढ़ने के कारण बहुत सी नफरत फैलाई गई और हिंसा भड़काई गई। देश को इस अंधी गली में इतना धकेल दिया गया कि उसे अपनी विरासत के बहुत सार्थक और प्रेरणादायक संदेश याद रखने का मौका ही नहीं मिला जो समय-समय पर गौतम बुद्ध, गुरू नानक, संत कबीर और महात्मा गांधी से प्राप्त हुए थे। हर देश और सभ्यता की तरह हमारे इतिहास में भला भी है और बुरा भी, पर हमें विशेष रूप से अपनी विरासत की उन प्रेरणाओं को पहचानना है, जो वर्तमान संकट से उभरने में हमारी और पूरे विश्व की सहायता कर सकें।
तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है जो भी कार्यक्रम बनाया जाए, उसके विभिन्न पक्षों का एक दूसरे से सामंजस्य और समन्वय हो। यदि हम पर्यावरण संरक्षण की बात कर रहे हैं, तो अर्थव्यवस्था में वैसे ही बदलाव सुझाएं जो इस उद्देश्य के अनुकूल हों। यह कहने की जरूरत भी आज विशेष रूप से इसलिए है क्योंकि पिछले कुछ वर्षो में एक दूसरे का विरोध करने वाली नीतियों को सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए एक ही कार्यक्रम में कई बार शामिल किया गया। उदाहरण के लिए पर्यावरण बचाने की दुहाई बार-बार देते समय आर्थिक नीतियां ऐसी सुझा दी जाती हैं, जिनसे पर्यावरण की काफी जबरदस्त तबाही की संभावना है।
अंतिम अनिवार्यता यह है कि बुनियादी सुधार का जो भी कार्यक्रम बने उसमें समाज के सभी हिस्सों की भागेदारी की पूरी संभावना होनी चाहिए और विशेष ध्यान उन तबकों पर देना चाहिए जो किसी न किसी भेदभाव या दबदबे के कारण अभी तक इस भागेदारी से वंचित किए गए हैं। लिंग के आधार पर देखें तो महिलाओं को, जाति के आधार पर देखें तो दलितों को, क्षेत्र के आधार पर देखें तो वनवासियों को और वर्ग के आधार पर देखें तो मजदूरों, छोटे किसानों और दस्तकारों को अधिक अवसर देने और उनकी व्यापक भागेदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। वास्तव में सार्थक बदलाव की एक प्रमुख पहचान यही है कि समाज अब तक जिन सदस्यों के भरपूर योगदान से वंचित रहा, वे अब उन्मुक्त होकर अपनी संभावनाओं के अनुकूल योगदान समाज की व्यापक भलाई में दें। किसी भी समाज के लिए वह दिन बहुत शुभ माना जाएगा जव उसके सभी सदस्य समान रूप से अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार उसे बेहतर बनाने में योगदान कर सकें।
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