हाईकोर्ट की टिप्पणी को संजीदगी से लें महिलाएं

Last Updated 20 Aug 2023 01:28:41 PM IST

हाल ही में तलाक के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने जीवन साथी पर अवैध संबंध होने के झूठे आरोप को क्रूरता की विशेष श्रेणी में डाला है।


हाईकोर्ट की टिप्पणी को संजीदगी से लें महिलाएं

मौजूदा मामले में एक स्त्री वर्षो से अपने पति पर अवैध संबंध का आरोप लगा उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रही थी। कोर्ट ने कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि इस तरह के आरोप दो लोगों के बीच के भरोसे और विश्वास को तो तोड़ते हैं ही, साथ ही वैवाहिक रिश्ते को भी खत्म कर देते हैं। इतना ही नहीं, अवैध संबंध को साबित करने के लिए वादी महिला के पास कोई साक्ष्य नहीं होना, वैवाहिक जीवन में लगभग अंतिम कील ठोकने के बराबर है।

निश्चित रूप से यह मानसिक क्रूरता की पराकाष्ठा है। आश्चर्य है कि इक्कीसवीं सदी में जब हम बौद्धिक रूप से मनस्वी होने और वैिक विकास के साथ कदमताल करने का हुंकार भर रहे हैं, तब देश में जड़ता और कुत्सित संकीर्णता की ऐसी बातें आदिमता का स्मरण कराती हैं। पुरुष भी प्रताड़ना और शोषण के शिकार हो सकते हैं। इस पर समाज और परिवार में विरले ही चर्चा होती है। हजारों मामले हैं, जहां महिलाओं द्वारा पुरुषों पर क्रूरता और हिंसा के मिथ्या आरोप जड़ कर उनके सामाजिक रु तबे और प्रतिष्ठा का क्षरण किया गया है।

इससे भी बढ़कर लाखों मामले ऐसे हैं, जिनमें बेगुनाह पति झूठे आरोपों के दलदल में फंसकर अपना जीवन गंवा बैठे हैं। माना कि ईर की अनुपम कृति स्त्री अपने अनेक रूप में समाज और परिवार की महत्त्वपूर्ण इकाई रही है, लेकिन वो क्यों भूल जाती है कि पुरुष ही इस अधूरी इकाई को पूरी करने का एकमात्र जरिया है। उसके बगैर संतुलन की कोशिश बेजा है। किसी भी परिस्थिति में उसके रूपक, बिंब और व्यक्तित्व को स्त्रियों के मुकाबले कमतर नहीं आंका जा सकता। व्यक्ति की निर्मल आत्मा उसकी मूलभूत पूंजी और संपत्ति है। इसी से संपन्न श्रीहीन निर्धन भी धनकुबेर है। इसे समझने की बेसाख्ता जरूरत है।

विडंबना है कि समानता, स्वाधीनता और संतुलन की मांग करते-करते औरतें आक्रांता बनती जा रही हैं। उनके मन की निर्मलता गायब हो रही है, और वे कुंठित स्त्रीत्व के साथ घुटने को मजबूर हैं। जाहिर है कि जीवन साथी के साथ सामंजस्य बिठाने की बजाय उस पर झूठे और बेबुनियाद आरोपों से जीवन भर की संचित प्रसन्नता खोखले छिद्रों से रिस रही है, जिससे उसका असल आनंद समाप्त हो रहा है। रिश्तों के बीच उभरतीं दरार भरने के लिए और पति-पत्नी के बीच संत्रास, कुंठा, और व्यर्थता बोध के विश्लेषण के लिए परिवार और समाज, दोनों को मिलकर समय निकालना होगा। लेकिन क्या यह विडंबनीय नहीं है कि अत्याधुनिक, विकसित और प्रगतिशील समाज अब पति-पत्नी के संत्रासों से निपटने में अपना कीमती समय बर्बाद कर रहा है।

अलगाव, हिंसा और बेकद्री रिश्ते तोड़ती है, जोड़ती नहीं। प्राचीन भारत में महिला-पुरुष, दोनों को जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी का दर्जा हासिल था। बाबजूद इसके वर्चस्व एवं प्रतिरोध के विभिन्न स्तरों पर स्त्रियों का अनपेक्षित रूप से पुरुषों के प्रति दुराग्रही और उनके प्रति निषेधात्मक तेवर अपनाए रखना उचित नहीं। मृगतृष्णा के पीछे दौड़ने से बेहतर है परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बिठाया जाए। व्यामोह के विशाल मेघों ने निर्मल विचारों के आदित्य को अपने श्यामल आंचल में छिपा रखा है। स्त्री पूरे मन से पुरुषों को अपनाए तो तपती दोपहरी भी बासंती सांझ बन जाएगी।

डॉ. दर्शनी प्रिय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment