जयंती : प्रेमचंद की परंपरा के मायने
प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई के इर्द-गिर्द हर वर्ष उनकी परंपरा पर कुछ-न-कुछ बहस जरूर हो जाती है। सब अपने-अपने कुनबे के लेखकों को उस परंपरा में कोंचने लगते हैं। बाज दफा तो स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। हिन्दी आलोचना की स्थिति यूं भी बहुत समृद्ध नहीं है।
जयंती : प्रेमचंद की परंपरा के मायने |
आलोचक पढ़ते चाहे जितना हों, सोचते-विचारते तो बहुत ही कम हैं। यही कारण है कि उन्हें अपने लिखे पर भरोसा दिलाने के लिए पूर्व लेखकों के उद्धरण पंक्ति दर पंक्ति देने पड़ते हैं। नतीजतन, इन आलोचकों के लेख उद्धरणों से पटे रहते हैं। सुना है कि विश्वविद्यालयों ने इसे हतोत्साहित करने की कोशिश की है लेकिन मैं जानता हूं आलोचक मानेंगे नहीं क्योंकि इनके पास कहने के लिए अपना कुछ होता नहीं है।
प्रेमचंद मेरे भी प्रिय लेखक हैं। और इसलिए हैं कि वह अपने समय में बहुत जागरूक थे। जब प्रेमचंद की परंपरा की बात आती है, तब बार-बार गांवों की चर्चा होती है। यही बात रेणु को लेकर होती है। अफसोसजनक तो यह है कि जिन लोगों में प्रेमचंद के पाठ का भी शऊर नहीं, उन्हें प्रेमचंद और रेणु की परंपरा का वाहक बताया जा रहा है। यह काम मार्क्सवादियों ने भी किया और गैर- मार्क्सवादियों ने भी। आज किसी की टिप्पणी देखी कि भुवनेर मिश्र के बलवंत भूमिहार और शिवपूजन सहाय के देहाती दुनिया को यथार्थवादी उपन्यास घोषित कर प्रेमचंद को उनकी परंपरा में सजाने की कोशिश हो रही है। क्या प्रेमचंद और रेणु का लेखन भुवनेश्वर मिश्र और शिवपूजन सहाय की परंपरा का लेखन है?
दरअसल, यह हिन्दी साहित्य का बौद्धिक दारिद्रय है कि ऐसी बहसें होती हैं। कुल मिलाकर ये असाहित्यिक बहसें हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं है। मेरे दिवंगत मित्र और मूर्धन्य आलोचक डॉ. सुरेंद्र चौधरी कहते थे कि परंपरा एक चीज है; परिपाटी दूसरी। अधिकतर लोग परंपरा और परिपाटी का घालमेल कर देते हैं। परिपाटी तौर-तरीकों और रिवाजों की होती है, लेकिन परंपरा चेतना के स्तर पर होती है। जो लोग परंपरा और परिपाटी के विभेद को नहीं समझते वही नेहरू को गांधी की परंपरा से विलग और पटेल-राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों को उनसे जुड़ा स्वीकारते हैं।
गांधीवाद अपनी चेतना में वैश्विक सार्वकालिक स्वतंत्रता की प्रस्तावना करता है, जो जितना व्यक्ति के स्तर पर है, उतना ही विश्व के स्तर पर। गांधी सभ्यता की समीक्षा करते हैं। लगातार परिवर्तनशील होने में यकीन करते हैं। उनकी इस चेतना को जवाहरलाल नेहरू अधिक समझते थे। पटेल, विनोबा, राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों के लिए गांधी का अर्थ खादी, ग्रामोद्योग और गीता जैसे बाह्य ढांचे थे। इसीलिए स्वयं गांधी ने अपना उत्तराधिकारी अपने घोर आलोचक जवाहरलाल को माना था, न कि पटेल, राजेंद्र प्रसाद और राजा जी जैसे लोगों को, जो गांधीवादी लकीर के फकीर थे। परंपरा की व्याख्या करना कठिन होता है। उपनिषदें वेदों को खारिज करती हैं। उन्हें वेदांत कहा गया है।
वेदों का अंत करने वाला। लेकिन उपनिषदें ही उनका विकास भी हैं, उनकी परंपरा वही है। पुत्र या पुत्री पिता का विकास है, उसकी परंपरा है, लेकिन कोई कपूत ही होगा जो अपने पिता का विस्तार नहीं करता। पुत्र से पराजित होने वाले पिता और शिष्य से पराजित होने वाले गुरु को भाग्यवान माना गया है। प्रेमचंद की परंपरा कोई है तो उनमें है, जिन्होंने प्रेमचंद को आत्मसात करते हुए उन्हें खारिज किया है। यह विरल प्रक्रिया है और प्रेमचंद की परंपरा के प्रसंग में उसे जैनेन्द्र, अज्ञेय, रेणु, उषा प्रियंवदा जैसे लेखकों में देखा जाना चाहिए, न कि विवेकी राय, मिथिलेर और संजीव जैसे लेखकों में।
प्रेमचंद अपनी चेतना में विश्व स्तर के दीखते हैं। भारत में उनके समकालीन लेखकों में रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ उनकी तुलना हो सकती है। दोनों के यहां मनुष्य धर्म, जाति और राष्ट्र से मुक्त है। रवीन्द्रनाथ समृद्ध जमींदार पृष्ठभूमि से आते थे, जबकि प्रेमचंद लगभग सर्वहारा पृष्भूमि से। दोनों के इस रूप की तुलना रूसी लेखकों टॉलस्टॉय और चेखब से हो सकती है। टॉलस्टॉय और चेखब विपरीत सामाजिक पृष्भूमि से थे लेकिन दोनों में मानव-मुक्ति की चेतना लगभग समान थी।
टॉलस्टॉय के उपन्यास ‘रेसरेक्शन’ और चेखब की कहानी ‘बेट’ में मनुष्य की आकांक्षा लगभग एक है। ठीक उसी तरह रवीन्द्रनाथ और प्रेमचंद की मानवीय चिंता एक है। जैसा कि मैंने बताया उनकी इस चिंता का विस्तार हम जैनेन्द्र, अज्ञेय और रेणु में देखते हैं। आज भी अनेक लेखक जाने-अनजाने इस परंपरा का विस्तार कर रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे रेखांकित करने वाले आलोचक नदारद हैं। मैं पाठकों से निवेदन करूंगा कि वे स्वयं इस परंपरा को ढूंढें, आलोचकों के भरोसे न रहें।
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