विदेश नीति की बढ़ती चुनौतियां

Last Updated 30 Jul 2023 01:29:06 PM IST

विश्व शांति को बढ़ते खतरों के बीच विकासशील देशों की विदेश नीति संबंधी कठिनाइयां और चुनौतियां बढ़ गई हैं। इस संदर्भ में मूलत: उनके सरोकार दो तरह के हैं और उनमें समन्वय बनाना जरूरी है।


विदेश नीति की बढ़ती चुनौतियां

उनका पहला उद्देश्य यह है कि विश्व की बढ़ती जटिलताओं के बीच वे अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करें व अपने देश के लोगों के हितों की रक्षा करें। उनका दूसरा उद्देश्य यह है, या होना चाहिए कि विव अमन शांति में, न्याय व समता आधारित वि व्यवस्था में, वि स्तर पर पर्यावरण की रक्षा में भरसक अपना सहयोग दें।

जहां तक राष्ट्रीय हितों का सवाल है तो स्पष्ट है कि कोई भी देश ऐसी स्थिति में नहीं आना चाहेगा, जिससे उसकी संप्रभुता और सीमाओं के खतरा पहुंचे। इसके साथ कोई भी विकासशील देश यह चाहेगा कि कृषि व खाद्य, व्यापार, निवेश, विदेशी कर्ज, करेंसी, पेटेंट, टैक्स, खनिज, ऊर्जा, जैविक संपदा व पर्यावरण आदि के मामलों में उससे अन्याय न किया जाए व अंतरराष्ट्रीय आर्थिक स्थिति ऐसी बनी रहे जो देश की स्थितियों के अनुकूल हो।

अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के लिए विकासशील देशों को चाहिए कि अमेरिका व नाटों देशों की रूस व चीन के प्रति जो दुश्मनी है, उसमें वे किसी एक गुट से न जुड़े अपितु गुट-निरपेक्ष देशों की ताकत को बढ़ाएं। कुल मिलाकर संयुक्त राज्य अमेरिका की नीतियां इराक, लीबिया, ईरान, सीरिया यमन व अफगानिस्तान जैसे कई देशों के प्रति बहुत अन्यायपूर्ण रही हैं, व जहां ऐसी नीतियों का विरोध जरूरी है, वहां करना चाहिए पर इस तरह से कि इतनी बड़ी सैन्य महाशक्ति से दुश्मनी न मोल ली जाए। दूसरी ओर चीन ने भी कई बार बहुत आक्रमकता का परिचय दिया है। यदि संयुक्त राज्य अमेरिका की आक्रमकता के साथ चीन की आक्रमकता क भी विरोध किया जाए तो यह अधिक न्यायसंगत होगा।

इस संदर्भ में यह सवाल सामने आता है कि अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में व वि शांति व न्याय को बढ़ावा देने में कोई परस्पर विरोध न उत्पन्न हो जाए। जिन देशों से अमेरिका ने अन्याय किया है, उनके पक्ष में खड़े होना जरूरी है पर इसके साथ ही अमेरिका के भीतर जो अमन-शांति व न्याय की ताकतें हैं, उनसे नजदीकी संबां भी बनाए रखनी चाहिए ताकि अमेरिका में भी मित्रता के संबां बने रहे। अमेरिका कोई सही कदम उठाए, तो वहां उसका समर्थन भी करना चाहिए। अमेरिका इस समय रूस के प्रति बहुत आक्रमक है व रूस पर अमेरिका ने अनेक प्रतिबां लगाए है। भारत इस आक्रमकता का समर्थन नहीं कर सकता है और रूस के साथ भारत के पुराने मित्रतापूर्ण संबंध रहे हैं, उससे भारत को बहुत कठिन समय में सहायता मिली है (जैसे कि बांग्लादेश की स्वाधीनता के युद्ध के समय) व इस मित्रता को हमें कठिन वक्त में बचाए रखना चाहिए)।

दूसरी ओर चीन से भारत को बहुत निराशा व आक्रामकता ही प्राप्त हुई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत और चीन यदि सही अथरे में मित्र देश रहे होते तो इनसे इन दोनों देशों का, एशिया व दुनिया का बहुत भला होता। भारत की आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू ऐसे प्रधानमंत्री थे जो इन दोनों देशों की मित्रता को बहुत महत्त्व देते थे। पर पहले चीन ने तिब्बत पर एकपक्षीय कार्रवाई की और फिर 1962 के हमले में और भी अधिक आक्रमक कार्रवाई दिखाई। दरअसल, 1959-61 के मानव निर्मित अकाल के कारण इस समय चीन की सरकार के विरुद्ध आंतरिक असंतोष बढ़ रहा था और इस स्थिति में भारत पर आक्रमण द्वारा अपनी शक्ति-प्रदर्शन चीन ने किया जो अनुचित व अनैतिक था। इसके लिए चीन ने ऐसा समय चुना जब क्यूबन मिसाइल संकट के कारण अमेरिका का ध्यान उस ओर केंद्रित था व अमेरिका व रूस अपने बीच किसी बड़े युद्ध की आशंका को टालने में व्यस्त थे। फिर जब बांगलादेश स्वाधीनता का युद्ध हुआ तो सभी साम्यवादी मान्यताओं को दुत्कारते हुए चीन ने पाकिस्तान की याहया खान तानाशाही का समर्थन बांगलादेश के स्वतंत्रता संग्राम के विरुद्ध किया।

इस तरह एक के बाद एक भारत-चीन संबंधों को झटके लगते रहे जिनमें मुख्य गलती चीन की आक्रमकता की थी। इसके बाद संबंध सुधारने के प्रयास हुए व इनमें कुछ सफलता मिली थी। पर कुल मिलाकर संबंधों में खटास बनी रही और हाल के समय में चीन की आक्रमकता और बढ़ी। कुल मिलाकर भारत का अनुभव यह रहा है कि चीन राजनीतिक और आर्थिक दोनों खतरों पर अधिक आक्रमक नीतियां अपनाता है। इसके बावजूद यह उचित नहीं होगा कि चीन और अमेरिका के अधिक बड़े टकराव में भारत पूरी तरह अमेरिकी कैंप से जुड़ जाए। यह करने से भारत  अधिक बड़ी सैन्याक्तियों के टकराव में पिस जाएगा।

अत: भारत को किसी भी गुट से नहीं जुड़ना चाहिए व विदेश नीति संबंधी अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहिए। चाहे चीन ने हमें पहले कितना भी निराश किया हो, दोनों पड़ोसी देशों की मित्रता के लाभ इतने अधिक हैं कि इन मित्रता की संभावनाओं को खुला रखना होगा। यदि चीन की नीयत और नीति बदलती है और वह सही अथरे में दोस्ती का हाथ बढ़ाता है तो भारत को यह दोस्ती का हाथ फिर भी थाम लेना चाहिए। इस उदाहरण से पता चलता है कि विदेश नीति में कितनी पेचीदगियां हैं व वे बढ़ भी रही हैं। इन बढ़ती पेचीदगियों के बीच भारतीय विदेश नीति कुल मिलाकर काफी सफल रही है और अनेक विकासशील देश विभिन्न मुद्दों पर भारत के रुख पर बहुत ध्यान देते हैं। इस स्थिति को आगे ले जाते हुए भारत को गुट-निरपेक्ष देशों के समूह को और गुट-निरपेक्षता को मजबूत करने में अधिक सशक्त भूमिका निभानी चाहिए व गुट-निरपेक्ष देश के  नेतृत्व में और भी अधिक मान्यता प्राप्त करनी चाहिए। ब्रिक्स समूह का महत्त्व भी बढ़ रहा है पर गुट-निरपेक्ष देशों के समूह की सदस्य संख्या बहुत ज्यादा है और इसका अपना एक ऐतिहासिक महत्त्व भी है।

जलवायु बदलाव संबंधी कार्यक्रम जहां पर्यावरण रक्षा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है वहां अंतरराष्ट्रीय संबंधों व राजनयिक स्तर पर भी यह विषय महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। इसमें विकासशील देशों को एक विशेष सावधानी यह रखनी चाहिए कि इस विषय पर धनी देश फिर से चालाकी कर इसे अपने स्वार्थ साधने के लिए दुरुपयोग न करें। ऐसे कुछ आसार तो नजर आ ही रहे हैं अत: सावधानी की जरूरत है। जलवायु बदलाव के संकट का समाधान न्याय की राह पर चलते हुए होना चाहिए व इसमें विकासशील देशों के साथ कोई अन्याय नहीं होना चाहिए। इसी तरह व्यापार व निवेश, पेटेंट आदि की नीतियों में भी विकासशील देशों से अन्याय नहीं होना चाहिए।

जिस समय व्यापार व्यवस्था गैट से विश्व व्यापार संगठन की ओर बढ़ी उस समय विश्व व्यापार के निर्णय पहले से और अधिक अन्यायपूर्ण कर दिए गए। अब अनेक व्यापार समझौतों से स्थिति और भी अधिक धनी देशों के पक्ष की ओर जा रही है। अत: विकासशील देशों को इसके विरोध में भी और सक्रिय होना चाहिए। विकासशील देशों को इस तरह के अनेक विषयों में अन्याय और विषमता को रोकने के लिए अपनी एकता को बढ़ाना चाहिए। विकासशील देशों के हितों की रक्षा में व उनकी बढ़ती एकता में भारत की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका संभव है व इसे भारत को पूरी जिम्मेदारी से निभाना चाहिए।

भारत डोगरा


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment