UCC मुस्लिम महिलाओं के हक में
केंद्र की भारतीय जनता पार्टी (BJP) की सरकार देश में समान नागरिक संहिता लागू करके अपना चिर-परिचित वादा पूरा करना चाहती है। इसलिए उसने सभी पक्षों से राय मांगी है। इस मुद्दे को लेकर बहस जारी है। लेकिन इतना जरूर है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू होने से मुस्लिम महिलाओं को बड़ी राहत मिलेगी।
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वजह यह है कि समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) ऐसा कानून है, जो देश के सभी नागरिकों के लिए बराबर है। इसमें लिंग के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जाता। इसके लागू होने पर देश में विभिन्न मजहबों और समुदायों के अपने निजी कानून खुद ब खुद खत्म हो जाएंगे यानी मजहब के आधार पर किसी को कोई खास फायदा नहीं मिल सकेगा, जो उन्हें अब तक मिलता रहा है।
मौजूदा वक्त में देश में विभिन्न मजहबों और समुदायों के अपने-अपने निजी कानून लागू हैं, जो उनके धार्मिंक ग्रंथों पर आधारित हैं। मुसलमानों का कानून शरिया कुरान पर आधारित है। ये कानून भारतीय संविधान के समानांतर चलते हैं। इस वजह से बहुत बार अदालतों के सामने संकट पैदा हो जाता है। ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जब धार्मिंक कानून और न्यायपालिका में टकराव के हालात बन गए। शाह बानो मामला इसकी मिसाल है। काबिले गौर है कि शरिया ऐसा कानून है, जो मुस्लिम पुरुषों को चार निकाह करने की इजाजत देता है।
वे जब चाहें अपनी पत्नी को तलाक दे सकते हैं, लेकिन महिलाएं अपने पति को तलाक नहीं दे सकतीं, बल्कि उन्हें तलाक मांगनी पड़ती है, जिसे खुला कहा जाता है। पुरानी दिल्ली में रहने वाली तकरीबन 67 साल की बन्नो के तीन बेटे और एक बेटी है। उनके बेटों और बेटी के भी बच्चे हैं। कुछ साल पहले उनका बूढ़ा पति अपनी बेटी की उम्र की लड़की से निकाह करके घर ले आया। इस घटना के कुछ वक्त बाद उनके एक बेटे ने भी दूसरा निकाह कर लिया। इन दोनों दूसरी शादियों के बाद घर का माहौल खराब हो गया। यह सिर्फ एक घर का किस्सा नहीं है। मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है। नजर दौड़ाने पर आसपास बहुत से घर देखने को मिल जाते हैं, जिनमें एक व्यक्ति की दो-दो पत्नियां हैं।
मुस्लिम समाज में तलाकशुदा महिलाओं की तादाद भी बहुत ज्यादा है। मुस्लिम इलाकों में ऐसे बहुत से घर मिल जाते हैं, जिनमें तलाकशुदा महिलाएं हैं। मुस्लिम समाज की महिलाओं की बदतर हालत जगजाहिर है। शाह बानो मामला मुस्लिम समाज में महिलाओं की हालत को बयां करने के लिए काफी है। मध्य प्रदेश के इंदौर में 1978 में तकरीबन 62 वर्षीय शाह बानो को उनके वकील पति मोहम्मद खान ने तीन तलाक देकर घर से निकाल दिया था। उनके पांच बच्चे थे। मजलूम शाह बानो के पास गुजर- बसर के लिए आमदनी का कोई जरिया नहीं था। उनके पति ने उन्हें खर्च देने से साफ मना कर दिया। इस पर उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटा कर इंसाफ की गुहार लगाई। तकरीबन सात साल बाद 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने उनके पति को निर्देश दिया कि वह अपनी तलाकशुदा पत्नी को गुजारे के लिए मासिक भत्ता दे। अदालत ने अपराध दंड संहिता की धारा-125 के तहत यह फैसला सुनाया था। काबिले गौर है कि अपराध दंड संहिता की यह धारा देश के सभी नागरिकों पर लागू होती है। चाहे वे किसी भी मजहब, जाति या संप्रदाय से संबंध रखते हों।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से उम्मीद जगी थी कि देश में मुस्लिम महिलाओं की हालत बेहतर हो सकेगी, लेकिन कट्टरपंथियों ने इस फैसले का सख्त विरोध किया। उस वक्त ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश भर में प्रदशर्न करने की चेतावनी दी। नतीजतन, तत्कालीन कांग्रेस सरकार कट्टरपंथियों के सामने झुक गई। प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने 1986 में संसद में कानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदल दिया। इस तरह कट्टरपंथी जीत गए और एक मजलूम औरत हार गई।
अफसोस की बात है कि कट्टरपंथियों को मजलूम औरत और उसके बच्चों की बेबसी दिखाई नहीं दी। सरकार ने भी इस मामले में इंसानियत के जज्बे को ताक पर रख दिया था। खुशनुमा बात है कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करना चाहती है। भारतीय जनता पार्टी ने 2019 और 1998 में अपने चुनावी घोषणापत्रों में देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया था। प्रधानमंत्री मोदी से उम्मीद की जा रही है कि वह इस वादे को पूरा करेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि समान नागरिक संहिता लागू होने से मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी बेहतर हो सकेगी। यह कानून बहुपत्नी प्रथा को खत्म करने में कारगर साबित होगा। महिलाओं को इस खौफ से भी निजात मिल जाएगी कि न जाने कब उनका पति उनकी सौत ले आए या उन्हें तलाक देकर घर से निकाल दे। उनके भरण-पोषण का मसला भी हल हो सकेगा। उन्हें जायदाद में भी बराबर हिस्सा मिल पाएगा। बहरहाल, यह कानून उन्हें वे सब अधिकार देगा, जिनसे अब तक वे महरूम रही हैं।
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