विपक्षी एका : विपक्ष के सामने मोदी-योगी चुनौती

Last Updated 22 Jun 2023 01:34:00 PM IST

लोकतंत्र में चुनाव किसी त्योहार से कम नहीं होते। आजादी के बाद के बीते सात दशकों में भारत के लोग पूरे उत्साह और उमंग से यह त्योहार मनाते आए हैं।


विपक्षी एका : विपक्ष के सामने मोदी-योगी चुनौती

खासकर, देश की सबसे बड़ी पंचायत, लोक सभा के गठन के लिए होने वाले चुनाव हमेशा से न केवल भारत, बल्कि दुनिया भर के आकषर्ण और उत्सुकता के सबब बनते हैं। इस दृष्टि से देखें तो संकेत मिल रहे हैं कि साल, 2024 में होने वाले लोक सभा चुनाव बेहद दिलचस्प होंगे।

यह बात पूरी तरह सही और तार्किक है कि हर चुनाव का अपना अलग गणित, अलग मुद्दे और अलग मिजाज होता है। जाहिर तौर पर अगले आम चुनाव का भी अपना खास सियासी अंदाज और मिजाज होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जहां भाजपा और उसके सहयोगी दलों के लिए यह सियासी हैट्रिक लगाने का शानदार अवसर है, तो कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों के लिए सियासी महासमर उनके अस्तित्व की लड़ाई है। उनके लिए ‘करो या मरो’ वाली स्थिति है। विपक्षी खेमे से यह आवाज बार-बार सुनी जा रही है कि यदि इस बार भाजपा को सत्ता में आने से नहीं रोका गया, तो विपक्ष के लिए आने वाले दिन बेहद मुश्किल वाले साबित होंगे। यही वजह है कि अपने तमाम आपसी विरोधों को दरकिनार कर करीब डेढ़ दर्जन विपक्षी पार्टयिों के नेता इसी महीने पटना में जुट रहे हैं। इस महाजुटान के सूत्रधार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, जो खुद भी भाजपा के साथ सूबे में अपनी सरकारें चलाते रहे हैं। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद से भाजपा से उनका मोहभंग कुछ ज्यादा ही हो गया है। विपक्ष की इस बैठक को लेकर कहा जा रहा है कि लोक सभा की सभी 543 सीटों में से कम से कम 400 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार के समक्ष विपक्ष का एक उम्मीदवार उतारा जाए। कोशिश यह भी है कि विपक्ष के एका का दायरा और बढ़ाया जाए और ज्यादा से ज्यादा सीटों पर भाजपा को कड़ी चुनौती दी जाए। विपक्ष की एकता की यह मुहिम रंग लाएगी भी कि नहीं , इसको लेकर फौरी निष्कर्ष पर पहुंचना न तो आसान है, और न ही मुनासिब। वैसे बीते एक दशक में भारतीय राजनीति पर केसरिया रंग छाने के बीच विपक्ष की ऐसी कोई भी कोशिश बहुत कामयाब नहीं रही है।

अलबत्ता, इस बार हालात जरूर कुछ बदले हुए हैं। विपक्ष द्वारा की जा रही इस बार की चुनावी तैयारी का मूल आधार यह है कि पिछले लोक सभा चुनाव में भाजपा ने महज 43 फीसदी वोट पाकर लोक सभा की 300 से ज्यादा सीटों पर कब्जा जमा लिया, जबकि 57 प्रतिशत वोट उसके खिलाफ पड़े थे। विपक्षी रणनीतिकारों का मानना है कि विरोधी मतों को इकट्ठा कर दिया जाए तो भाजपा को परास्त करना आसान हो जाएगा। लेकिन विपक्षी एकता की राह में सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देश की संसद में सबसे ज्यादा लोक सभा सांसद भेजने वाला प्रदेश उत्तर प्रदेश और इसके मुखिया योगी आदित्यनाथ खड़े हैं। उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में से भाजपा ने पिछली दफा 64 सीटें जीती थीं लेकिन उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में योगी ने जिस प्रकार शानदार जीत दर्ज की और उसके बाद चाहे प्रदेश में कानून व्यवस्था को चुस्त-दुरु स्त करने का मामला हो, माफिया के सफाए की हकीकत हो या प्रदेश की खुशहाली के लिए बड़े पैमाने पर देशी-विदेशी निवेशकों को जुटाने की बात हो, योगी ने बड़ी लकीर खींचने का काम किया है।

दूसरी ओर, प्रदेश में विपक्ष बुरी तरह बिखरा हुआ है। कांग्रेस का लगभग सफाया हो चुका है, तो पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बसपा का अपनी ढपली और अपना राग वाली स्थिति है। यदि विपक्षी एकता के नाम पर यहां पर कांग्रेस समाजवादी पार्टी की पिछलग्गू बनना स्वीकार भी कर लेती है, तो भी बसपा के साथ आए बगैर यह एका मुकम्मल साबित नहीं हो सकता। जयंत चौधरी की अगुआई में राष्ट्रीय लोकदल की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मौजूदगी जरूर है और जाहिर है कि वह भी विपक्ष की नाव में सवार होंगे लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में उनके ही गढ़ में भाजपा ने जिस प्रकार की जीत दर्ज की, उसको देखते हुए उनको बहुत प्रभावशाली मानना भी जल्दबाजी होगी।

नीतिक आलोचक और विश्लेषक भी स्वीकर करने लगे हैं कि मुख्यमंत्री के अपने दूसरे कार्यकाल में योगी ब्रांड के तौर पर उभरे हैं। यह भी देखना अहम होगा कि विपक्षी खेमे में ज्यादातर क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व कांग्रेस की मुखालफत पर टिका है। कांग्रेस का ही वोट लेकर ये सभी अस्तित्व में आए। अब चाहे ममता बनर्जी हों, लालू यादव हों या शरद पवार हों, सभी के पास का जो वोट बैंक है, वह कायदे से कांग्रेस का ही है। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस का रुख क्या होता है। खासकर, कर्नाटक में मिली जीत के बाद पार्टी के हौसले कुछ ज्यादा ही बुलंद हैं।

मधुकर रंजन


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