हिन्दी : बाजार में बढ़ी है धमक
हिन्दी भाषा और बाजार के रिश्ते को लेकर कई तरह के भ्रम की स्थितियां हैं। क्या सचमुच बाजार ने हिंदी भाषा की ताकत और उसके विस्तार को नया आयाम दिया है?
हिन्दी : बाजार में बढ़ी है धमक |
बाजार ने भाषाओं के पुनर्वास की चुनौतियों को सयास और सुनियोजित ढंग से संभव बनाया है। इसमें उसके अपने लोभ-लाभ छिपे हुए हैं। बाजार का सीधा उद्देश्य है लाभ और अपने प्रोडक्ट का प्रचार-प्रसार। बाजार एक ही साथ कई भाषाओं का समुच्चय बनता है। उस भाषाई समुच्चय के निर्माण में भाषा के प्रति आस्था व विश्वास न होकर अधिक लोगों तक पहुंचने की तत्परता दिखाई पड़ती है। यह बाजार की केंद्रीय शर्त है। आज बाजार की भाषा के रूप मे हिंदी समादृत है, लेकिन वही हिन्दी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की भाषा बनने मे असमर्थ दिख रही है।
भाषा हमारी परम्परा और संस्कृति से अटूट और रचनात्मक रिश्ता रखती है। संबंधों के प्रति गहरा लगाव व अपनापन भारतीयता की पहचान है। बाजार की चलताऊ भाषा ने रिश्तों की गर्माहट और अहसास को खंडित किया है। बुआ, फूफा, मौसी, चाची, दादा-दादी ऐसे संबंधगत अनेक संदर्भ हैं, जिन्हें बाजार ने अंकल और आंटी के रूप में तब्दील कर दिया है। यह पारिवारिक रिश्तों के सौंदर्यबोध पर एक तरह से अप्रत्यक्ष हमला है। अपनी परंपरा और संस्कृति की उर्वर और मौलिक जड़ से कटी भाषा असंवेदनशील हो जाती है। बाजार ने मातृत्व और प्रेम जैसे पवित्र और मानवीय भाव को एक दिवस के रूप मे जड़वत कर दिया है। ‘मदर्स डे’ या ‘वैलेंटाइन डे’ की सफलता बाजार केंद्रित है, लेकिन उसकी सार्थकता मनुष्यता केंद्रित कदापि नहीं है। आज बाजार की दुनिया को दो रूपों में विभक्त कर सकते हैं। एक है, जो ट्रेडिशनल फॉर्म में सक्रिय है और दूसरा वर्चुअल फॉर्म में है।
इंटरनेट की दुनिया का बाजार भी कमतर नहीं है। यहां हिन्दी का बढ़ता साम्राज्य और इसका अंतरजातीय रूप देखकर हम प्रफुल्लित हो सकते हैं कि हिन्दी की पहुंच बढ़ी है या अंग्रजी को टक्कर दे रही है, लेकिन इसका न्यून पक्ष यह है कि भाषा की जीवंतता और उसका मानवीय प्रभाव निरंतरता में कम हो रहा है। यह भाषाई चिंता का एक नया कोण है। आज हिन्दी के विज्ञापनों की धूम मची है। हिन्दी अखबारों की बढ़ती प्रचार संख्या भी हमें हिन्दी के प्रति आश्वस्त करती है। हिन्दी सिनेमा की अपार लोकप्रियता, टीवी सीरियल और ओटीटी प्लेटफॉर्म ने देश ही नहीं वरन विदेशों में भी हिन्दी की लोकप्रियता को नया स्वरूप दिया है। चतुर्दिक रूप से हिन्दी का बढ़ता वर्चस्व हमें गौरवान्वित करता है किंतु भाषाई अस्मिता के प्रश्न पर हम मार्मिंक यथार्थ से मुठभेड़ करते दिखते हैं। संप्रति भाषा की शक्ति की पहचान और परख की कसौटी बाजार है। वह भाषा दुनिया में सम्माननीय है जो बाजार में अपने वर्चस्व का सिक्का जमा सकता है।
दुनिया के बाजार में अंग्रेजी की सर्वस्वीकर्ता प्रमाणित है किंतु आज अंग्रेजी के उसी वर्चस्व को लगातार चुनौती देती हिंदी दिख रही है। क्या यह सच नहीं है कि लग्जरी घड़ियों के अंतरराष्ट्रीय ब्रांड काटिएर, मोंक ब्लोंक, रोलेक्स, पटक फिलिप, गुची आदि के विज्ञापन हिंदी मे आने लगे हैं। दुनिया की महंगी कार में शुमार र्मसडिीज, रॉल्स राइस, ऑडी, बीएमडब्ल्यू, वाल्वो, लेक्सस आदि के विज्ञापन भी हिंदी में प्रचलित हो गए हैं। दरअसल, यह हिंदी के बढ़ते प्रभाव का सूचक है। बाजार ने हिंदी को अपने अनुकूल बना लिया है, जिसकी अपनी भाषाई सीमाएं हैं। किसी भाषा के साथ सबसे बड़ा छल उसे सिर्फ सूचना और मनोरंजन की भाषा में कैद कर देना है।
आज बाजार हिंदी भाषा का जो रूप गढ़ रहा है वह हिंदी की ताकत को अंदर से कमजोर करने का प्रयास है। आखिर अभी भी हिंदी सरकारी दफ्तरों, अंतराष्ट्रीय बाजारों, उच्चस्तरीय वाताओं, अनुसंधान, चिकित्सा विज्ञान आदि में हिंदी को क्यों नहीं स्वीकारा जा रहा है? क्या इस सच से इनकार किया जा सकता है की अंग्रजी के वर्चस्व के कारन हिंदी माध्यम से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अभियर्थियों में बेरोजगारी बढ़ी है। उनका सामाजिक सम्मान घटा है। आप लोक सेवा आयोग का परीक्षा परिणाम देख सकते हैं। यह सच है कि हिंदी का समाज लगभग वह है जो अंग्रजी की दुनिया से कटा है। हमारा स्वाभाविक चयन हिंदी नहीं है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदी की क्षमता में विश्वास रखने वाले लोगों की संख्या भी सम्मानजनक है।
कोई भी भाषा तभी उन्नति और लोकप्रियता की राह पर चलती है, जब उस भाषा में नई पीढ़ी का आकषर्ण हो क्योकि भाषा का भविष्य भी नई पीढ़ियों के साथ ही सुरक्षित रह सकता है। इस प्रश्न का उत्तर हमें उत्साहित नहीं करता है। नई पीढ़ियों के लिए भाषा का अर्थ रोजगार और अर्थोपार्जन की क्षमता से है। अगर वह इसमें समर्थ है तो उसका लगाव भाषा के साथ होगा। अन्यथा भाषा के सांस्कृतिक मूल्यों से उसे कोई स्वाभाविक लगाव नहीं दिखता।
हमें इस तथ्य को समझना होगा की हिंदी भाषा सिर्फ मनोरंजन या रोजगार की भाषा नहीं है बल्कि यह हमारी संवेदना की भाषा है, यह मनुष्यता की भाषा है, प्रतिरोध की भाषा है। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और हिंदी को पुनप्र्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जा रहा है। यह स्तुत्य है। हमें इस चिंता को जीवंत रखना है कि हिंदी सिर्फ आधुनिकीकरण की भाषा के रूप में न रहे बल्कि वह एक मानवीय भाषा के रूप में सुरक्षित रहे।
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