प. बंगाल भाजपा : विगत से ज्यादा उम्मीद से कम

Last Updated 08 Sep 2022 01:30:00 PM IST

जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के गृह राज्य यानी पश्चिम बंगाल में भाजपा वह नहीं कर पा रही है, जो अन्य कुछ राज्यों कर रही है, और बंगाल में करना चाहती है।


प. बंगाल भाजपा : विगत से ज्यादा उम्मीद से कम

जनसंघ अब भाजपा के नाम से जानी जाती है। मौजूदा वक्त में भाजपा केंद्र की सत्ता के साथ-साथ अन्य कई राज्यों की कमान संभाले हुए है, लेकिन प. बंगाल में न उस तरह खड़ी हो पा रही है, जिस तरह खड़ा होना चाहती है, और न ही उस तरह तृणमूल कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर हो पा रही है, जिसके बलबूते सूबे की जनता पर विश्वास कायम कर सके।
हालांकि 2019 के लोक सभा और 2021 के प. बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा को विगत चुनावों से कहीं ज्यादा मिला, लेकिन उम्मीद से बहुत कम, जिस वजह से भाजपा नाना प्रकार के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस को उस तरह से घेर नहीं पाई, जिस तरह से घेरना चाहती थी। बीते आम चुनाव में भाजपा ने सूबे की 42 लोक सभा सीटों में 18 पर जीत हासिल की थी। भाजपा की इस जीत पर केसरिया खेमा तो क्या राजनीति के पंडित भी अचरज में थे। इस अभूतपूर्व जीत से उत्साहित भाजपा ने 2021 के विधानसभा चुनाव में ‘अबकी बार, दो सौ पार’ और ‘दो मई, दीदी गई’ (दो मई मतगणना की तिथि थी) का नारा देकर पूरी ताकत से विधानसभा का चुनाव लड़ा था, लेकिन पार्टी 77 से ज्यादा सीट नहीं जीत पाई। अब अगले साल (2023) में सूबे में पंचायत चुनाव होने हैं, और उसके अगले साल यानी 2024 में आम चुनाव। इस बीच, सूबे में आई घोटालों की बाढ़ और कई मंत्री, विधायक और नेताओं की गिरफ्तारी को भाजपा न जाने क्यूं सही तरीके से भूना नहीं पा रही, यह एक सोचनीय विषय है।
वाम मोर्चा के शासनकाल में नंदीग्राम और सिंगुर मामले को जिस तरह ममता ने न केवल उछाला था, बल्कि जन-जन को विश्वास दिला दिया था कि वाम मोर्चा की रणनीति और राजनीति, दोनों सूबे के विकास और राज्य की जनता के खिलाफ हैं, उस तरह भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे को उछालने में पूरी तरह से असफल रही है। जब से सूबे में तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनी है यानी 2011 से धारावाहिक की तरह एक के बाद एक भ्रष्टाचार के मुद्दे सामने आ रहे हैं, तृणमूल के नेताओं से केंद्रीय एजेंसियां (सीबीआई, ईडी, एनआईए) पूछताछ कर रही हैं। जरूरत पड़ने पर उन्हें गिरफ्तार कर रही हैं, कइयों को जेल हो रही है। कई फिलहाल हिरासत और जमानत पर हैं। बावजूद इसके प्रदेश भाजपा धारदार तरीके से न मुखर हो पा रही है, और न जनता को सही तरीके से समझा पा रही है कि तृणमूल यानी भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार यानी तृणमूल।

बीते कुछ सालों के दौरान भाजपा को भ्रष्टाचार समेत कई ऐसे मुद्दे मिले, भाजपा जिसके सहारे तृणमूल को परेशानी में डाल सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। शारदा चिटफंड घोटाला, रोजवैली चिटफंड घोटाला, नारद स्टिंग ऑपरेशन, कोयला घोटाला, मवेशी तस्करी का मामला, शिक्षक भर्ती घोटाला, जय श्रीराम सुन ममता का बिदक जाना, मौलवियों को भत्ते का ऐलान, मुर्हरम के लिए दुर्गा विसर्जन को रोक देना समेत कई ऐसे मुद्दे थे, जिनको सही तरीके से भूना कर भाजपा तृणमूल को दिन में तारे दिखा सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विगत सालों में सांसद, विधायक व पाषर्दों की संख्या के मामले में कहीं अधिक बेहतर स्थिति में होने के बावजूद भाजपा ममता को क्यों नहीं घेर पा रही है, इस बाबत भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। भ्रष्टाचार के मामले में तत्कालीन राज्य सभा सदस्य (कुणाल घोष), लोक सभा सदस्य (सुदीप बंद्योपाध्याय), तत्कालीन मंत्री (मदन मित्र) न केवल महीनों जेल की हवा खा चुके हैं, बल्कि फिलवक्त जमानत पर हैं, और रोज भाजपा को आड़े हाथों ले रहे हैं। इसी तरह पार्थ चटर्जी और अनुब्रत मंडल फिलहाल केंद्रीय एजेंसियों की हिरासत में हैं। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री के भतीजे व तृणमूल सांसद अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी भी जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं। और तो और ममता ने खुद कबूला है कि केंद्रीय एजेंसियों का अगला निशाना कोलकाता के मेयर फिरहाद हाकिम हो सकते हैं, बावजूद इसके भाजपा ऐसा कुछ क्यों नहीं कर पा रही, जिसके बूते जनता के गले यह बात उतार सके कि तृणमूल के नेता करनी का फल भोग रहे हैं। अलबत्ता, ममता और उनकी पार्टी के नेता जोरदार तरीके से हर मंच से कह रहे हैं कि भाजपा बंगाल में राजनीतिक लाभ के लिए केंद्रीय एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल कर रही है। ममता ने सार्वजनिक तौर पर यह तक कह डाला कि हिम्मत हो तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाएं।  तृणमूल नेता इन दिनों कुछ परेशान जरूर हैं, लेकिन उसकी वजह प्रदेश भाजपा नहीं, बल्कि केंद्रीय एजेंसियों की सक्रियता है। प्रदेश भाजपा के नेता जो कह और कर रहे हैं, वह विगत से ज्यादा है, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व की उम्मीदों से बहुत कम।

शंकर जालान


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