गणेश चतुर्थी : पूजा-अर्चना के प्रथम अधिकारी गणेश जी

Last Updated 31 Aug 2022 01:17:00 PM IST

सनातन धर्म में किसी भी शुभ मुहूर्त का प्रारंभ गणेश वंदना से होता है। गणेश जी की प्रतिष्ठा संपूर्ण भारत में समान रूप से व्याप्त है।


गणेश चतुर्थी : पूजा-अर्चना के प्रथम अधिकारी गणेश जी

आम तौर पर एक कहावत भी प्रचलित है-आओ, अमुक कार्य का श्रीगणेश करें यानी कार्य का शुभारंभ करें। सनातन संस्कृति के देवताओं की फेहरिस्त में गणेश जी एकमात्र ऐसे देव हैं, जिनके बारे किंवदंती प्रचलित है कि उन्होंने अपने ज्ञान के आधार पर स्वयं को पूजा-अर्चना का प्रथम अधिकारी बनाया। धर्मशास्त्रों में वर्णन मिलता है कि भगवान शिव ने कार्तिकेय और गणेश के बीच एक प्रतियोगिता आयोजित की-कि जो अपने वाहन पर सवार होकर पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौटेगा वही प्रथम पूजनीय होगा।

गणेश जी ने अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। कार्तिकेय अपने मयूर वाहन पर सवार होकर पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे। किंतु देवाधिदेव महादेव ने कहा कि गणेश तुमसे पहले ब्रह्मांड की परिक्रमा कर चुका है, माता-पिता की परिक्रमा करके उसने साबित कर दिया कि माता-पिता ब्रह्मांड से भी बढ़कर हैं। वस्तुत: गणेश जी ने संसार को इस तथ्य से अवगत कराया कि माता-पिता ही हमारे सर्वस्व हैं। और माता-पिता की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।

धर्म के दस लक्षणों में बुद्धि का सर्वाधिक महत्त्व है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है-यस्य बुद्धिर्बलम तस्य, निर्बुद्धे: तु कुत: बलम यानी जिसके पास बुद्धि है, वही बलशाली है क्योंकि बुद्धि के बिना शारीरिक बल भी महत्त्वहीन हो जाता है। गौरतलब है कि सनातन संस्कृति में बुद्धि के प्रतीक एवं अधिष्ठाता गणेश जी को माना गया है। गणेश जी के सिर को गज यानी हाथी के रूप में प्रदर्शित करना मेधा शक्ति का परिचायक है। दरअसल, हाथी के बड़े आकार का सिर विवेक और प्रज्ञाशक्ति के अद्भुत समन्वय को दर्शाता है। असलियत में, बुद्धि तो हरेक के पास होती है, किंतु विवेक के बिना बुद्धि विध्वंसात्मक गतिविधियों की ओर उन्मुख हो जाती है, जबकि गणेश जी तो स्वयं विघ्नहर्ता और किसी भी किसी भी शुभ कार्य के मार्ग में आने वाले अवरोधों के उन्मूलन करने वाले देवता हैं। इसलिए सनातन धर्म की परंपरा में प्रत्येक शुभ कार्य का प्रारंभ गणेश वंदना से किया जाता है। गणपति बप्पा का विशाल उदर करु णा, उदारता और पूर्ण स्वीकारोक्ति का द्योतक है। असल में जिस समाज में, जिस परिवेश में करु णा, उदारता और हरेक परिस्थिति के प्रति सहज स्वीकृति की भावना निर्मिंत होने लगती है, वहां श्रद्धा, आस्था और सत्य का स्वाभाविक प्रकटीकरण होने लगता है।

महाराष्ट्र में गणेश जी को मंगलकारी देवता के रूप में पूजा जाता है। गौरतलब है कि लोकमान्य तिलक ने स्वाधीनता आंदोलन में चेतना जागृत करने के उद्देश्य से 1893 में गणेशोत्सव का आगाज किया। तिलक ने भारतीय जनमानस की गणपति बप्पा के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति को सांस्कृतिक महोत्सव से संयुक्त कर दिया। लोगों की बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल रचनात्मकता की ओर प्रवृत्त कर राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई ऊर्जा और ऊंचाई प्रदान की। गणेश जी को एकदंत भी कहा जाता है, जो निश्चित तौर पर पूर्ण एकाग्रता का प्रतीक है, जबकि उनके हाथों में विराजमान अंकुश पूर्ण सजगता का परिचायक है। गणेश जी दूसरे कर में जो पाश धारण किए हुए हैं, वह प्रतीक है आत्मनियंत्रण का। दरअसल, जब कोई व्यक्ति आध्यात्मिकता के मार्ग पर अग्रसर होता है, तो उसके प्रारब्धरूपी विकर्म और पुरातन संस्कारों का आवरण बिखरने लगता है, धीरे-धीरे उसकी प्राणदायिनी शक्ति और आत्मचेतना संपूर्ण शरीर में अपना विस्तार करती है, उस स्थिति में आध्यात्मिक ऊर्जा मुक्त होकर एक फैलाव ग्रहण करती है, उस विशेष अवस्था में यदि व्यक्ति विवेक और आत्म संयम से स्वयं को नियंत्रित न कर पाए तो वह विध्वंस और पतन का कारण भी बन सकती है।

गणेश जी का वाहन चूहा भी सिंबोलिक है। दरअसल, चूहा उन षड़विकारों को आसानी से कुतर देता है, जो आध्यात्मिक प्रगति के पथ पर बाधा बनकर आते हैं। गौरतलब है कि गणेशसुभाषितानि में गणपति का आवाह्न किया गया है-‘हे विघ्न-विनाशक, बुद्धिदायक हमारे मार्ग में आने वाले सभी अवरोधों को दूर कर हमें ज्ञान के आलोक से आलोकित करो, ज्ञान की अग्नि से हमारे समस्त प्रकार के बंधनों, अंधविश्वासों और विकर्मो को तिरोहित कर दो। धर्मशास्त्रों में ऐसा वर्णन भी मिलता है कि भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के दशर्न से झूठा कलंक लगने की संभावना रहती है।  जिस तरह योगेर श्रीकृष्ण पर स्यमंतक मणि चुराने का आरोप लगा था  लेकिन सनातन संस्कृति की विशेषता यह भी है कि तमाम तरह के पापों से मुक्त होने के उपाय भी बताए गए हैं। निम्न मंत्र का पाठ कर लेने से भी दोष निवारण हो जाता है-

‘सिंह प्रसेनम अवधीत, सिंहो जाम्बवता संत:।
सुकुमार मा रोदीस्तव ह्येष स्वतंत्र:।।’

कहने का अभिप्राय यह है कि यदि जाने-अनजाने चंद्रमा के दर्शन हो भी जाएं तो गणेश स्तुति करने एवं कृष्ण-स्यमंतक को पढ़ने और श्रवण करने से व्यक्ति दोषमुक्त हो जाता है, और मान्यता यह भी है कि हर दूज के चंद्र दर्शन से भी व्यक्ति दोषमुक्त हो जाता है।

डॉ. विनोद कुमार यादव


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