ताइवान, चीन और अमेरिका : विदेश नीति कसौटी पर

Last Updated 06 Aug 2022 12:41:01 PM IST

दुनिया के चौधरी’ अमेरिका को दो पक्षों की लड़ाई में दाल-भात में मूसलचंद कहें या विश्व शांति को खतरे में डालकर भी फायदा उठाने और स्वार्थ साधने का उसका लाइलाज मर्ज कहें, तो चीन की विस्तारवादी नीति दुनिया के लिए कुछ कम अंदेशे नहीं पैदा करती। भारत स्वयं इसका भुक्तभोगी है।


ताइवान, चीन और अमेरिका : विदेश नीति कसौटी पर

15 जून, 2020 को गलवान घाटी में भारतीय सेना से भीषण संघर्ष के बाद वार्ताओं के अनेक दौरों के बावजूद वह एलएसी के पास पक्के निर्माण करने से तो बाज नहीं ही आ रहा, सीमा पर अतिक्रमण कर नये गांव भी बसा ले रहा है। अपने कर्ज के बोझ तले दबे श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह का इस्तेमाल करके भी वह भारत की चुनातियां बढ़ा ही रहा है। ऐसे में अमेरिकी कांग्रेस की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की बहुप्रचारित ताइवान-यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हो जाने के बाद उसके दूसरे यूक्रेन में बदल जान के अंदेशे से परेशान दुनिया ने भले ही थोड़ी राहत की सांस ली है, भारत की विदेश नीति एक बड़ी परीक्षा में उलझी हुई है।

जानकारों की मानें तो इस मामले में भारत ने सावधानी से पक्ष चुनकर उपयुक्त कदम नहीं उठाए तो उसको अंतरराष्ट्रीय राजनीति और  राजनय में नई उलझनों का सामना करना पड़ सकता है। इस अर्थ में और कि जिस रूस को हम समय की कसौटी पर जांचे-परखे मित्र की संज्ञा देते हैं, उसने और पाकिस्तान ने, जिसे हम कुटिल पड़ोसी मानते आए हैं, चीन का साथ चुनने में तनिक भी देर नहीं लगाई है। उन्होंने दो टूक कह दिया है कि पेलोसी का ताइवान दौरा अमेरिका द्वारा चीन को चिढ़ाने की कोशिश है। उत्तर कोरिया ने भी इस मामले में चीन का ही साथ दिया है, और दुनिया फिर से दो गुटों में बंटती दिख रही है।

पेलोसी की यात्रा को लेकर दुनिया के माथे पर बल थे तो उसका कारण ताइवान के दूसरा यूक्रेन बन जाने का अंदेशा ही था। यह अंदेशा कितना बड़ा था, इसे इस तथ्य से समझ सकते हैं कि यूक्रेन में तो मुकाबला बहुत विषम है, और रूस के मुकाबले यूक्रेन की कोई हैसियत ही नहीं है, लेकिन ताइवान में विवाद भड़कता तो उसके एक तरफ चीन होता और दूसरी तरफ अमेरिका! हम जानते हैं कि ये दोनों ही महाशक्तियां हैं, भिड़ जातीं तो तीसरा विश्व युद्ध भी शुरू हो सकता था। लेकिन अफसोस कि वह खतरा नहीं पैदा हुआ और चीन द्वारा ‘जो आग से खेलेंगे, खुद जलेंगे’ वाली अपनी धमकी पर अमल न करने से पेलोसी शांतिपूर्वक ताइवान जाकर लौट आई तो भारत के युद्धोन्मादियों को जैसे दुनिया का राहत की सांस लेना अच्छा नहीं लग रहा। वे यह कहकर चीन का मजाक उड़ाने पर उतर आए हैं कि वह कागजी शेर सिद्ध हुआ है। एक प्रेक्षक ने तो उसे चिढ़ाते हुए यहां तक लिख दिया है कि पहले तो वह ऐसे चिंघाड़ रहा था कि जैसे अमेरिकी वायुसेना के जिस विमान से पेलोसी ताइवान जा रही हैं, उसको खाड़ी में गिराकर ही मानेगा और पेलोसी का शव समुद्र की लहरों में ढूंढ़ना पड़ेगा। क्या अर्थ है इसका?

युद्धोन्मादियों को मजा तभी आता, जब कमजोर समझे जाने के डर से चीन कतई संयम न बरतता और ताइवान के अपना अभिन्न अंग होने की मान्यता के तहत पेलोसी के वहां जाने को अपनी संप्रभुता का उल्लंघन मानते हुए आक्रामक होकर तीसरे विश्व युद्ध का मार्ग प्रशस्त करने लगता। पेलोसी की यात्रा के वक्त उसने जिस तरह ताइवान के चारों तरफ लड़ाकू विमान और जलपोत डटा दिए थे, साथ ही अमेरिका ने भी अपने हमलावर विमान, प्रक्षेपास्त्र और जलपोत आदि तैनात कर दिए थे, उससे गलती से भी किसी तरफ से किसी हथियार का इस्तेमाल हो जाता तो विनाश-लीला छिड़ जाती। ताइवान ने इसी विनाशलीला के अंदेशे में अपने सवा दो करोड़ लोगों को बमबारी से बचाने के भरसक इंतजाम भी किए थे। अब, स्वदेशी युद्धोन्मादियों के अविवेकी रवैये के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि कहीं भारतीय विदेश नीति भी उनसे प्रभावित होकर यह समझने से इनकार तो नहीं कर देगी कि ताइवान के मसले पर अमेरिका व चीन का ही नहीं दुनिया के ज्यादातर देशों का रवैया अपने राष्ट्रीय स्वाथरे से प्रेरित रहा है, और अमेरिका उसे लेकर चीन के खिलाफ बराबर खम ठोक रहा है तो इसका एक बड़ा कारण दोनों के बीच अरसे से चला आ रहा व्यापार और बाजार पर कब्जे का युद्ध है, जो कभी धीमा तो कभी बहुत तेज हो जाता है।

तिस पर अमेरिका के निकट उसकी चौधराहट की सबसे बड़ी पूंजी है, जिसे वह किसी भी कीमत पर नहीं गंवाना चाहता। साफ कहें तो पिछले दिनों चीन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका व भारत समेत चार देशों के चैगुटे की जैसी निंदा की थी, उसके मद्देनजर आश्चर्य तब होना चाहिए था, जब तिलमिलाया हुआ अमेरिका पेलोसी की ताइवान यात्रा को लेकर नरम रु ख अपनाकर कदम पीछे हटा लेता। जब चीन ने अल-कायदा के सरगना अल-जवाहिरी की हत्या को लेकर भी अमेरिका की आलोचना से परहेज नहीं किया था और सैन्य टकराव की धमकी दे रहा था, तो अमेरिका पेलोसी के ताइवान यात्रा के निर्णय से पीछे हटता तो उसकी चौधराहट का जलवा कम होता ही होता। वह ऐसा क्योंकर होने देता? प्रसंगवश, दुनिया के केवल 13 देश ही महत्त्वपूर्ण फस्र्ट आइलैंड चेन में शुमार ताइवान को अलग व संप्रभु देश मानते हैं।

अमेरिका के भी उसके साथ आधिकारिक राजनयिक संबंध नहीं ही हैं, लेकिन वह ताइवान रिलेशंस ऐक्ट के तहत उसे आत्मरक्षा के लिए हथियार बेचता है और कतई नहीं चाहता कि वह चीन के कब्जे में जाकर उसके आर्थिक, सामरिक व राजनयिक हितों के आड़े जाए क्योंकि इससे चीन पश्चिमी प्रशांत महासागर में अपना दबदबा फिर से बढ़ाकर उसकी चौधराहट के लिए खतरा बन सकता है। इसे यों भी समझ सकते हैं कि अमेरिका ताइवान पर वैसा ही दबदबा दिखाने के फेर में है, जैसा श्रीलंका पर चीन। दुर्भाग्य से भारत इन दोनों में से किसी के भी असर से अछूता नहीं रह सकता। इसलिए उसे अपनी विदेश नीति को फिर से परखने की जरूरत है। यह देखने की भी कि न अमेरिका उसका सगा हो सकता है, न चीन। समझने की भी कि पिछले कुछ सालों में गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत से विचलित होकर, पुराने मित्र देशों की नाराजगी की कीमत पर सैन्य और सामरिक शक्तियों के आगे झुकने से उसने क्या-क्या नुकसान झेले हैं, और आगे क्या-क्या झेलने पड़ सकते हैं।

कृष्ण प्रताप सिंह


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