गंगा प्रदूषण : सहभागिता में ही समाधान
बीती 24 जुलाई को अखबारों में प्रकाशित नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की एक महत्त्वपूर्ण खबर को समाज द्वारा कोई तव्वजो नहीं दी गई।
गंगा प्रदूषण : सहभागिता में ही समाधान |
न ही स्वच्छ गंगा अभियान से जुड़े किसी समाजसेवी ने और न ही किसी पर्यावरणविद् ने इस पर कोई आवाज उठाई। एनजीटी की यह खबर केंद्र और राज्य सरकारों की कार्यवाही पर भी प्रश्न चिह्न खड़े करती है। एनजीटी का बयान था कि अनेक नियम-कानूनों और दशकों की निगरानी के बावजूद आज भी लगभग 50 प्रतिशत अनुपचारित सीवेज और उद्योगों का गंदा पानी गंगा नदी में छोड़ा जा रहा है।
कुछ दिन पूर्व सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार नमामि गंगे मिशन के अंतर्गत शामिल नदियों में भारी धातुओं का उच्च स्तर पाया गया है। दुनिया की दस प्रदूषित नदियों में मोक्षदायिनी गंगा का नाम भी शामिल हो चुका है। प्रदूषण के कारण एवं जल प्रवाह में कमी से गंगा निरंतर सिकुड़ती जा रही है। कभी खराब न होने वाला गंगा जल आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। गंगा नदी में प्रदूषण इतना अधिक हो गया है कि आचमन करने लायक भी नही रह गया है। पिछले 37 वर्षो में सरकार द्वारा अरबों रुपये व्यय करने के बावजूद गंगा के प्रदूषण की स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है। स्वच्छ गंगा हेतु प्रभावी निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को भी बहुत महत्त्व नहीं मिल पाया है। गंगा की सफाई के लिए जिम्मेदार पर्यावरण व वन मंत्रालय एवं जल संसाधन मंत्रालय, दोनों की क्या जवाबदेही तय नहीं की जानी चाहिए।
उल्लेखनीय है कि गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए समय-समय पर सरकार द्वारा अनेक कार्यक्रम चलाए जा चुके हैं। इनमें 1986 में गंगा एक्शन प्लान और 2014 में 2000 करोड़ रुपये का नमामि गंगे कार्यक्रम प्रमुख हैं। इस संदर्भ में नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी एवं राष्ट्रीय गंगा परिषद का भी गठन हो चुका है। इसके बावजूद अनेक रिपोर्ट सरकार और समाज की असंवेदनशीलता ही उजागर करती हैं। सीएसई की रिपोर्ट के अनुसार गंगा के 33 निगरानी स्टेशनों में से 10 में उद्योगों से सीधे नदी निकायों में अपशिष्ट जल को बहा दिया जाता है। गंगा नदी के तट पर बसे औद्योगिक नगरों में प्रमुख शहर कानपुर में गंगा सर्वाधिक मैली है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार दस राज्य अपने सीवेज का उपचार नहीं करते जिससे लगभग 72 प्रतिशत सीवेज अपशिष्ट अनुपचारित ही नदी में मिल जाता है। दो करोड़ 90 लाख लीटर से ज्यादा प्रदूषित जल और कचरा गंगा नदी में हर दिन गिर रहा है।
हाल में संपन्न कांवड यात्रा के बाद हरिद्वार में गंगा नदी के आसपास और घाटों पर लगभग 30 मिट्रिक टन कूड़ा जमा हो गया था जो प्लास्टिक, चप्पल, कपड़ों, मल आदि गंदगी के रूप में था। एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है। प्रदूषणमुक्त पर्यावरण प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक अधिकार और राज्यों का संवैधानिक दायित्व है।
गंगा नदी को प्रदूषणमुक्त करने के लिए कड़े कदम उठाने जाने की आवश्यकता है। सरकार को जीरो टालरेंस की नीति पर कार्य करना होगा। सरकार के स्तर पर गंगा की स्वच्छता से संबधित अधिकारियों की जवाबदेही कार्य लक्ष्य पर आधारित होनी चाहिए। प्रदूषण की रोकथाम सुनिश्चित करने के लिए क्रियान्वयन पक्ष पर बल देते हुए ट्रीटमेंट प्रणालियों की स्थापना और रखरखाव की निगरानी व्यवस्था को सुदृढ़ करना होगा। इससे जुड़ी प्रक्रियाओं को सरल, लचीला और समयबद्ध बनने की दिशा में कार्य करना होगा। समस्या की गंभीरता को समझते हुए सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि गंगा नदी में प्रदूषण की एक बूंद भी न जाने पाए।
गंगा की स्वच्छता से संबधित संस्थाओं को उपचारात्मक उपायों को छोड़कर गंभीर प्रयासों की दिशा में बढ़ना होगा। गंगा नदी के प्रदूषण में कमी आने से इसके जल प्रवाह में भी वृद्धि होगी। नमामि गंगे कार्यक्रम के अंतर्गत गंगा प्रदूषण के प्रभावी उन्मूलन और उसके संरक्षण और कायाकल्प के दोहरे उद्देश्य को पूरा करने के लिए समाज की सहभागिता से जन आंदोलन चलाए जाने की आवश्यकता है जिससे कि लोग धार्मिंक कर्मकांडों की गंदगी को गंगा न डालें।
वर्तमान में तकनीकी इतनी उन्नत हो चुकी है कि विकास और गंगा की स्वच्छता के बीच आसानी से संतुलन स्थापित किया जा सकता है। जिम्मेदारी और जवाबदेही पर आधारित विस्तृत रणनीतिक खाका तैयार करना होगा। इसमें प्रदूषण से संबंधित वर्तमान कानूनों और अदालतों के दिशा निर्देशों के कार्यान्वयन को शामिल किया जाना जरूरी है। गंगा नदी के कायाकल्प के लिए केंद्र और राज्य सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासन और कानून की कठोरता के साथ ही जन की सहभागिता अति आवश्यक है जिससे गंगा की निर्मल धारा अविरल रूप से प्रवाहित होती रहे।
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