सरोकार : बदल रही है फिजां बदल रहे हैं तेवर
21वीं सदी का पूर्वार्ध महिलाओं के लिए अपनी वैचारिक धुरी बदल रहा है। यह अस्तित्व-अस्मिता के प्रति बढ़ती उनकी सजगता को भी रेखांकित कर रहा है।
सरोकार : बदल रही है फिजां बदल रहे हैं तेवर |
आधुनिक चेतना संपन्न स्त्री, पुरु ष के साथ बराबरी और दोस्ती का रिश्ता चाहती है। अपने सम्मान और इच्छा को वह सबसे ऊपर का स्थान देती है। पुरु ष प्रधानता और पुरु ष वर्चस्व ढोने और अत्याचार सहने से वह इनकार करती है।
आधुनिक शिक्षित नारी स्वतंत्र व्यक्तित्व के प्रति सचेत होकर सोचने लगी है। वह अपनी खोई हुई पहचान और अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही है। और निश्चित रूप से इस संघर्ष में उसका प्रतिद्वंद्वी पुरु ष और पुरु ष प्रधान मानसिकता ही है, जिससे उसे लगातार लोहा लेना पड़ा है। हाल के दिनों में उनके इस आंदोलन ने नया करवट लिया है। उनके अनवरत प्रयासों के शुभ संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। भारतीय मानसिकता ने अपनी पुरातन सोच परंपरा को बदला है।
उसके बनाए खांचे में फिट होने वाली औरतें अब संकीर्ण चौखटों से बाहर समय और काल के पार उतरने लगी है। उनके लिखित इतिहास की अदबी और नफीस औरतों ने बागी और कद्दावर रुख अख्तियार कर उन्हीं के आदर्श किरदारों को नकारा है। वक्त ने घड़ी बदली और समय का प्रश्निचह्न अचानक दूसरी ओर मुड़ने लगा है। बदले जमाने की दस्तक ने स्त्रियों की अस्मिता की लड़ाई की धार को और ज्यादा पैना किया है। इसकी बानगी है दिल्ली पुलिस के 15 पुलिस जिलों के 6 प्रमुख जिलों में जाबांज महिला अधिकारियों की हालिया तैनाती।
ये तो बस आगाज है। एक कदम और आगे बढ़कर देश के मुख्य न्यायाधीश ने समानता की इस पैरोकारी को मजबूती दी है। ज्यूडिशयरी में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण की व्यवस्था और ये कहना कि यह महिलाओं का अधिकार है कोई चैरिटी नहीं; महिलाओं के प्रति उनकी समानता, संबल और सशक्तता की सैद्धांतिक प्रतिबद्धता को मुखरता प्रदान करती है। सर्वोच्च अदालत में अब तक के 256 जजों में सिर्फ 11 महिला जजों और मौजूदा वक्त में कुल 33 जजों में केवल 4 महिलाओं का होना अक्सर सालता हैं। आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि देशभर के 25 हाईकोर्ट में केवल 78 महिला जज ही है। यानी हाईकोर्ट में केवल 7 फीसद महिला जज है। जाहिर है ऐसे हालात में सीजेआई का महिलाओं को लेकर सकारात्मक बयान आना सालों से बंद पड़े दरवाजों को अचानक खोल देता है।
धूल पड़े दरवाजों से रोशनी तब भी बाहर आने लगती है, जब राष्ट्रीय रक्षा अकादमी जैसी संस्थाएं लंबे समय से चली आ रही महिलाओं के प्रति अपनी वर्जनाएं तोड़ती है। निह:संदेह अंधेरी गलियों से फूटते ये कुछेक रोशन लकीरें औरतों की नई तस्वीर तदवीर बनाने में मदद करेंगी और रु आब से खड़ा समय अपनी दरख्तों पर नये पाखियों को भी मुकम्मल जगह देगा। बराबरी की इस पैरोकारी से दोनों वगरे के बीच सभी द्वंद्व-अंतद्र्वद्व मिटेंगे। पुरु ष ने स्त्री के स्वतंत्र व्यक्ति होने को कभी महत्त्व नहीं दिया है। ऐसे माहौल और दबाव में बौने हुए अस्तित्व को लेकर आश्रिता का जीवन जीने की बाध्यता को जब स्त्री स्वयं अस्वीकार करती है तो उसके व्यक्तित्व विकास की ओर वह पहला कदम होता है। आज की नारी इसी दिशा में आगे बढ़ रही है और निश्चित ही बदला माहौल उसकी राह आसान कर रहा है। जाहिर है आसमां और गहरी होंगी और पाखियां खुलकर एक दिन ऊंची परवाज भरेंगी।
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