रंगा-रंग : एक पुराने शहर की कशमकश
पिछले दिनों अपने गृहनगर बनारस में काफी वक्त बिताने का अवसर मिला। नगर में बहुत कुछ बदल रहा है, नये निर्माण हो रहे हैं। हालांकि बड़े कार्यों के बारे में तो आपको वहां से दूर रहकर भी पता चलता ही है।
रंगा-रंग : एक पुराने शहर की कशमकश |
इनकी खबरें मीडिया के जरिए हम तक पहुंचती ही रहती हैं लेकिन जैसा कि बनारस के बारे में कहा जाता है, यह शहर दूर से पकड़ में नहीं आता। इसे समझने के लिए आपको यहां रहना पड़ता है, वक्त बिताना पड़ता है, गलियों और घाटों पर बेवजह घूमना पड़ता है, पान और चाय की दुकानों की बतरस में डूबना पड़ता है। तो कहना चाहिए कि बनारस के बदलाव को भी अगर करीब से महसूस करना हो, तो वहां कुछ वक्त बिताना जरूरी है। कभी एक प्रशासनिक अधिकारी ने अपनी गायिका पत्नी से कहा था कि वर्षो बाद भी बनारस लौटो तो तुम्हें यह नगर वैसा ही मिलेगा, जैसे हम इसे छोड़कर गए थे।
यह बात आज भी इन अर्थों में सही है कि आप महीनों, वर्षो बाद लौटें तो सड़कें वैसे ही जाम मिलेंगी, उन पर खुदाई या कोई निर्माण कार्य चल रहा होगा और इसके कारण कई जगहों पर उन्हें बंद भी किया गया होगा, पुराने इलाकों और खासकर गोदौलिया से जुड़ी सड़कों पर लोगों की किसी मेले जैसी भीड़भाड़ होगी और इनके बीच से सही-सलामत निकल आना एकलव्य के चक्रव्यूह से निकल आने जैसा ही साहस होगा। सड़कों पर दुकानों के अतिक्रमण, उनसे जुड़े लोगों के वाहन खड़े मिलेंगे, गलियों में चले जाइए, जगह-जगह गोबर और गंदगी भी मिलेगी, पानी बहता मिलेगा। घाटों पर सुबह-शाम घरों से निकल आए लोगों का जमावड़ा होगा। पीढ़ियां बदल गई हों लेकिन ये चीजें अभी भी नहीं बदली हैं। हां, पिछले दिनों बहुत सारी गलियों की मरम्मत भी देखने को मिली। गलियों के पत्थर बदल दिए गए हैं, और उन्हें समतल भी बनाने की कोशिश हुई है। इसके साथ ही गलियों के दोनों ओर की दीवारों पर भित्ति चित्र भी बनवाए गए हैं। बनारस की गलियों में भित्ति चित्र बनाने का चलन पुराना है। नये भित्ति चित्र बनाने वालों को पुराने ढंग का ज्ञान भले न हो लेकिन परंपरा से जुड़े रहने की कोशिश उनमें जरूर दिखती है।
लेकिन बनारस में बहुत कुछ बदल भी रहा है। पुरानी चीजें हट रही हैं, नये निर्माण हो रहे हैं। कुछ इलाकों का तो पहचान पाना भी मुश्किल हुआ जा रहा है। हालांकि किसी भी प्राचीन नगर को अक्सर इन स्थितियों का सामना करना पड़ता है। जब प्राचीन इमारतों की उम्र खत्म होने लगती है तो या उनकी बराबर मरम्मत कराई जाती रहती है, या फिर नये निर्माण होते हैं। बनारस के पुराने इलाकों के ज्यादातर भवनों की उम्र सौ-डेढ़ सौ साल से ज्यादा हो चुकी है। काशी विनाथ मंदिर के निकट का इलाका तो पूरी तरह बदल रहा है, दूसरे हिस्सों में भी नये निर्माणों की धमक है। विकास के लिए नये-नये निर्माण हो रहे हैं। इन सबके बीच चिंता बनारस के उस बनारसीपन को बचाए रखने की है, जिसके लिए इस नगर की पहचान है। बनारस कोई आम शहरों जैसा नहीं है, जिसे विकास के रंग में ढाल दिया जाए। उसे अपनी परंपरा और विरासत के साथ खड़ा भी रहना है। उसकी कबीरचौरा और रामापुरा की गलियों में संगीत की गूंज भी आनी जरूरी है। पक्के महाल में भारतीय प्रदेशों की मिली-जुली संस्कृति की खुशबू भी बनी रहनी है। मदनपुरा और रेवड़ी तालाब में बुनकरों के करघों से नगर का ताना-बाना भी बुनना जरूरी है। कवि मंगलेश डबराल की कविता की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं, जो उन्होंने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के निधन के बाद लिखी थीं-‘क्या दशामेध घाट की पैड़ी पर/मेरे संगीत का कोई टुकड़ा अब भी गिरा हुआ होगा? क्या मेरा कोई सुर कोमल रिखभ या शुद्ध मध्यम/अब भी गंगा की धारा में चमकता होगा? बालाजी के कानों में क्या अब भी गूंजती होगी/मेरी तोड़ी या बैरागी भैरव? क्या बनारस की गलियों में बह रही होगी मेरी कजरी/देहाती किशोरी की तरह उमगती हुई? मेरी शहनाइयों का कोई मजहब नहीं था/सुबह की इबादत या शाम की नमाज/वे एक जैसी कशिश से बजती थीं’(शहनाइयों के बारे में बिस्मिल्लाह खान)।
विकास तो कहीं भी रु कता नहीं है। नई चीजें आती रहती हैं, आती रहेंगी लेकिन बनारस जैसे शहर की मुश्किल उसकीअपनी पहचान को बचाए रखने की भी है। इस शहर की कशमकश नये और पुराने के बीच बहुत कुछ सहेजने की है। कभी प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह ने बनारस पर लिखी अपनी कविता में कहा था- ‘किसी अलक्षित सूर्य को/देता हुआ अर्घ्य/शताब्दियों से इसी तरह/गंगा के जल में/अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर/अपनी दूसरी टांग से/ बिलकुल बेखबर!’ लेकिन प्राचीनता की एक टांग पर खड़े इस शहर को विकास और आधुनिकता की ओर बढ़ी दूसरी टांग के बारे में बाखबर होना होगा, बेखबर नहीं!
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