वैश्विकी : दादागीरी का दर्शन
‘हमारे देश की पांच हजार साल पुरानी सभ्यता है। इस सभ्यता की ताकत की बदौलत समसामयिक हालात से तालमेल बिठाते हुए हमारा देश दुनिया में सिरमौर बनेगा।
वैश्विकी : दादागीरी का दर्शन |
अपने पांच हजार साल के इतिहास में हमने किसी पर आक्रमण नहीं किया, किसी देश पर वर्चस्व और आधिपत्य कायम नहीं किया। यह हमारे डीएनए में है। साथ ही यदि कोई देश हमारे ऊपर आक्रमण करता है या दादागीरी कायम करने की कोशिश करता है तो उसके इरादे देशवासियों की ताकत वाली इस्पात की दीवार से टकरा कर चकनाचूर हो जाएंगे।’ यह उद्गार किस नेता के हैं इसे लेकर लोगों में भ्रम हो सकता है। इस उद्धहरण के साथ यदि नरेन्द्र मोदी का नाम जोड़ा जाए तो यह यथार्थ से अलग नहीं होगा।
हालांकि यह उद्धहरण चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की शताब्दी वर्ष के अधिवेशन में दिए गए भाषण के हैं। राष्ट्रपति शी ने अपने भाषण में 1.4 अरब चीन के लोगों की इस्पात की दीवार का उल्लेख किया था। उन्होंने विरोधी देशों को चेतावनी दी थी कि यदि किसी देश ने चीन के विरुद्ध आक्रामक कार्रवाई की तो इस्पात की दीवार से टकरा कर उनका सिर खंडित हो जाएगा और वे लहूलुहान हो जाएंगे। पश्चिमी मीडिया सहित समाचार माध्यमों ने ‘खंडित सिर और लहुलूहान शरीर’ पर ही ध्यान केंद्रित कर इसे खबरों की सुर्खियां बनाया। हालांकि चीन की ओर से जारी भाषण के अंग्रेजी अनुवाद में इस शब्दावली को निकाल दिया गया है।
अपने देश के बारे में भारत और चीन के नेताओं की समझ और राय एक जैसी है, और इसीलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि दोनों देशों ने लद्दाख में एक-दूसरे के विरुद्ध 50-50 हजार सैनिकों की तैनाती क्यों की है? जाहिर है कि चीन के नेताओं की कथनी और करनी में बहुत फर्क है। चीन के नेताओं की सोच और उनकी करनी से नहीं लगता कि उन्हें अपने देश, भारत और एशिया के अन्य देशों की सभ्यता-संस्कृति के बारे में कोई समझ है। चीन के नेता अपनी इस सभ्यता और संस्कृति की डींग भले ही हांकते हों, लेकिन वास्तव में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और वहां की सरकार का रवैया विस्तारवादी, साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी ही है। चीन पश्चिम के ऐसे ही देशों की तरह है। फर्क केवल यह है कि उसने अपने विस्तारवादी मंसूबों और देश की अधिनायकवादी सत्ता को वैधता प्रदान करने के लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद का आवरण ओढ़ रखा है। यह बात राष्ट्रपति शी के कार्यकाल में ही नहीं बल्कि तीन दशक पहले ही जाहिर हो गई थी, जब चीन ने कम्युनिस्ट सोवियत संघ के विरुद्ध अमेरिका के साथ गठजोड़ बनाया था।
चीन के राष्ट्रपति जब देश की विभिन्न मोर्चे पर असाधारण सफलता का जिक्र करते हैं तो वह भूल जाते हैं कि चीन की उपलब्धियों के पीछे पश्चिमी देशों का निवेश, प्रौद्योगिकी और बौद्धिक समर्थन का योगदान है। एक दशक के अंदर चीन अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। करीब तीन दशक पूर्व जब चीन ने पश्चिमी देशों के साथ गठजोड़ किया था तब उसने मार्क्सवाद-लेनिनवाद को दरकिनार करते हुए राज्य नियंत्रित पूंजीवाद का रास्ता चुना था। आर्थिक सुधारों के प्रणोता डेंग जियाओ पिंग का प्रसिद्ध कथन था कि ‘बिल्ली काली हो या सफेद इससे कोई फर्क नहीं पड़ता बशत्रे बिल्ली चूहे को पकड़ सके।’ पश्चिमी देशों के निवेश और प्रौद्योगिकी के बलबूते आज बिल्ली शेर बन गई है। भारत और वियेतनाम इस बात की गवाही देते हैं कि शेर अब आदमखोर बन गया है। यह विडंबना है कि पश्चिमी देश आज चीन को काबू करने की कोशिश कर रहे हैं जबकि चीन की ओर से नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की केंद्रीय भूमिका और पंचशील जैसे सिद्धांतों की दुहाई दी जा रही है।
राष्ट्रपति शी के भाषण से यह भी स्पष्ट है कि वह देश में कम्युनिस्ट पार्टी का शिंकजा लचीला बनाने के लिए तैयार नहीं है। देश की आर्थिक प्रगति से खुशहाल बने लोगों को उसी मात्रा में राजनीतिक आधार देने में भी उनकी कोई रुचि नहीं है। नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की वकालत ढकोसला मात्र है, जो भारत की सीमा के साथ ही दक्षिण चीन सागर में उसकी गतिविधियों से स्पष्ट है।
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