बतंगड़ बेतुक : धर्म बदलवाइए, जन्नत पा जाइए

Last Updated 03 Jul 2021 11:54:29 PM IST

‘काहे ददाजू, काहे इतने दुखी हो रहे हो, लगता है मन पर कोई भारी बोझ ढो रहे हो’, झल्लन हमें देखते ही बोला।


बतंगड़ बेतुक : धर्म बदलवाइए, जन्नत पा जाइए

हमने कहा, ‘तू बता झल्लन, आज के हिंदुस्तान में कुछ भी ऐसा रह गया है जिस पर खुश हुआ जा सके या जिस पर ठीक-ठाक होने का भरोसा किया जा सके? लगता है जैसे नफरत फैलाने वाली जमातों को सात दिन चौबीस घंटों का काम मिल गया हो और इंसानियत का हर मकान मजहब की मार से ढह गया हो।’ झल्लन बोला, ‘पहेली पूछना तो हमारा काम है, आप काहे पहेली बना रहे हो, बात को सीधे-सीधे न बताकर काहे जलेबी बना रहे हो, आखिर किस बात पर इतना मातम मना रहे हो?’ हमने कहा, ‘रोज धर्मातरण की साजिशें उजागर हो रही हैं, वही हमारे भीतर भय का भाव बो रही हैं।’
झल्लन हंसा जैसे हमने मजाक किया हो या कोई बेसिर-पैर का बतंगड़ कह दिया हो। वह बोला, ‘खोदा पहाड़ निकला चूहा, बिना बात के हूहा, हूहा। अरे, जो काम सदियों से चलता आया है वह आज भी चल रहा है और इस पिद्दी सी बात पर आपका कलेजा जल रहा है।’ हमने कहा, ‘जिसे लेकर पूरब से पश्चिम तक और जम्मू से दिल्ली तक उबाल आ रहा है, जो मुद्दा मीडिया में लगातार छा रहा है, हिंदुओं और सिखों के दिलों में बवाल मचा रहा है और तू है कि इतने भारी-भरकम मुद्दे को पिद्दी बता रहा है।’ झल्लन बोला, ‘सुनिए ददाजू, चाहे मीडिया में उछाल आये, चाहे लोगों के दिलों में बवाल मचाए, धर्मातरण तो दीन-मजहब का काम है जो जोर-शोर से चलता रहेगा और अल्लाह के फजल से खूब फलता रहेगा।’ हमने कहा, ‘धर्मातरण इस समय एक सुनियोजित षड़ंयत्रकारी हरकत है, जिससे हिंदू सिखों के दिलों में लावा फूट रहा है और यह षड्यंत्र उनके दिमागों पर कहर बनकर टूट रहा है। दो संप्रदायों के बीच नफरत की खाइयां चौड़ी करना, उनके दिमागों में आपसी दुश्मनी का जहर भरना, पारंपरिक सद्भाव और सौहाद्र्र को किर्च-किर्च करना- आखिर इन सबको कैसे सही बताया जा सकता है और ऐसा करने वालों को किस बिना पर निदरेष ठहराया जा सकता है? इस काम से संविधान की व्यवस्था बिखर जाती है और लोकतंत्र की आत्मा मर जाती है।’

झल्लन बोला, ‘ददाजू, आप तो ऐसे कह रहे हो जैसे लोकतंत्र की आत्मा अभी भी जिंदा चल रही हो या अभी भी किसी कोने-अंतरे में पल रही हो। यह आत्मा तो कब की मर चुकी है और संविधान के नाम पर लोग इसकी लाश ढो रहे हैं, और जो इस आत्मा की दुहाई देते हैं लगता है जैसे घड़ियाल सौ-सौ आंसू रो रहे हैं। और वैसे भी ददाजू, लोकतंत्र विरोधी तो वे हैं जो धर्मातरण जैसी परलोकतांत्रिक प्रक्रिया का विरोध करते हैं या एक मजहब के लोगों को दूसरे मजहब में ले जाने वालों पर क्रोध करते हैं।’ हमने कहा, ‘क्रोधित वे इसलिए होते हैं कि उनकी लड़कियों के जरिए उन्हें अपमानबोध कराया जाता है और उन्हें जानते-बूझते भड़काया जाता है।’ झल्लन बोला, ‘जरा सोचिए ददाजू, कौन लोग अपमानबोध से चटकते हैं और कौन लोग बिना बात भड़कते हैं। कुछ हिंदू संगठन हैं जो हल्ला उठाते हैं और कुछ सिख संगठन हैं जो फालतू में सड़कों पर उतर आते हैं।’
हमने कहा, ‘जो लोग सड़कों पर नहीं उतरते इसका मतलब यह नहीं कि उनके सीने में आग नहीं लगती या धर्मातरण कराने वालों के प्रति उनके मन में नफरत नहीं जगती। सच बात यह है कि जब भी समाज के अलग-अलग तबकों में नफरत सुलगती है तब-तब इंसानियत खतरे में पड़ती है।’ झल्लन बोला, ‘पता नहीं ददाजू, आप किस इंसानियत की बात कर रहे हैं, किस इंसानियत को लेकर डर रहे हैं। यहां इंसानियत मजहब से बड़ी नहीं होती और वह कभी भी मजहब के रास्ते में खड़ी नहीं होती।’ हमने कहा, ‘धर्मातरण से और कुछ होता हो न होता हो पर गंदी राजनीति के अखाड़े सज जाते हैं और एक-दूसरे पर मार-प्रहार करने वाले मैदान में उतर आते हैं।’ झल्लन बोला, ‘देखिए ददाजू, मजहबियत राजनीति का पक्का मुकाम होती है, और राजनीति मजहब की चिरखरीद गुलाम होती है। और वैसे भी धर्मातरण पर कौन राजनीति करता है, बस, सिर्फ हिंदूवादी संगठनों के पेट में दर्द उठता है। बताइए, किस कांग्रेसी, किस सपाई, किस बसपाई, किस ममताई ने धर्मातरण पर चिंता जताई और धर्मातरण कराने वालों पर किसने उंगली उठाई?’ हमने कहा, ‘देख झल्लन, मजहब और सियासत का यह वह गंदा गठजोड़ है जो लोगों से उनका सद्विवेक छीन लेता है और उन्हें उन्मादी बना देता है, उन्हें  इंसान विरोधी हरकतों में लगा देता है।’
झल्लन बोला, ‘तो आप ही बताइए ददाजू कि क्या करना चाहिए, धर्मातरण के नाम पर हिंदू-सिख और मुसलमानों के बीच नफरत न बढ़े इसका क्या रास्ता निकलना चाहिए?’ हमने कहा, ‘हमें तो लगता है कि धर्म गुरुओं, मुफ्ती मौलवियों को आगे आना चाहिए और धर्मातरण के विरुद्ध फतवा लाना चाहिए।’ झल्लन बोला, ‘क्या बात करते हो ददाजू, वे काहे अपना दीन खतरे में डालेंगे और अगर उन्होंने ऐसा किया तो मुसलमान उन्हें पकड़-पकड़कर मारेंगे।’ सुनकर हम फिर उदास हो गये और फिर अपने खयालों में खो गये।

विभांशु दिव्याल


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