मीडिया : मीडिया का सच-झूठ
पिछले दिनों यूपी की लोनी में क्या हुआ? पुलिस एक कहानी कहती रही, विपक्ष दूसरी कहता रहा। सच क्या था? यह सवाल जांच के हवाले है जिसे यूपी पुलिस कर रही है।
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उसका सत्य जब भी आएगा उसका सच होगा, सबका सच न होगा। और उस पर भी विवाद होगा। इस तरह सच मर जाएगा और सिर्फ विवाद रह जाएगा और फिर उसकी जगह कोई और विवाद आ जाएगा। इसी तरह बंगाल में चुनाव बाद की हिंसा को लेकर मानवाधिकार कमेटी बंगाल जाकर जांच करती है और स्वयं हिंसा का शिकार होती है। अपनी रिपोर्ट में वह हिंसा को पूर्वनियोजित कहती है, और सरकार पर जिम्मेदारी आयद करती है, तो प्रवक्ता सीधे कह उठते हैं कि यह उनकी सरकार को बदनाम करने के लिए बनाई रिपोर्ट है। जब हाईकोर्ट ऐसी ही बातें कहता है, तो कह दिया जाता है कि अदालत प्रभाव में है, दबाव में है।
इसी तरह ट्विटर का सच रहा। पहले उसने सरकार की नहीं मानी, कह दिया कि वो अपने कानून से चलता है। जब लोनी पुलिस ने हिंसा के भड़काऊ वीडियो को दिखाने पर केस कर ट्विटर के भारतीय प्रबंधक को हाजिर होने के लिए कहा तो वो हाईकोर्ट से स्टे ले आया कि वह आने में असमर्थ है। हां, ऑनलाइन पुलिस के सवालों का जवाब देने को तैयार है। फिर एक दिन उस पर ‘चाइल्ड पोर्न लिंक’ देने का आरोप लगा और केस हुआ। ट्विटर के पक्षधर कहने लगे कि यह मीडिया की आजादी को दबाना है। पुलिस कहती है कि ट्विटर यहां के कानून का पालन न करने का दोषी है, लेकिन उसके पक्षधर कहते हैं कि यह फासिज्म है। एक कहता है कि ट्विटर का अपराध है तो दूसरा कहता है कि ट्विटर को अपराधी कहना अपने आप में अपराध है। इस तरह हर बार सच देखते देखते मर जाता है, या मार दिया जाता है।
हर सच पहले सीन में कुछ होता है। बीच के सीनों में कुछ होता है और अंत के सीन में सारा सच लंगड़ाने लगता है। जो सच शुरू में दिखता था, अंत तक आते-आते इतना बदल जाता है कि कथित आरोपित देवता नजर आता है, और आरोप लगाने वाला ही आरोिपत जैसा नजर आता है। जेके में दो सिख लड़कियों का जबरन इस्लाम में धर्मातरण करने और जबरन निकाह कराने की खबर आई तो अकाल तख्त तक ने कहा कि जेके में धर्मातरण के खिलाफ सख्त कानून बनाया जाए, लेकिन तीन दिन बाद एक लड़की टीवी पर आकर कहने लगी कि वह बालिग है। उसने अपनी मरजी से मुसलमान से शादी की है। दूसरी लड़की सिख समुदाय में वापस आ गई और इस तरह धर्मातरण की सारी कहानी आई-गई हो गई। तीन दिन पहले का सच कुछ था। तीन दिन बाद में इतना बदल गया कि सच ही ‘झूठ’ नजर आने लगा।
सच इन दिनों टुकड़े-टुकड़े करके पेश किया जाता है, उसे इस कदर ठोका-बजाया जाता है कि उसका चेहरा ही बदल जाता है। इतना मीडिया, इतने खबर चैनल, इतने कैमरे फिर भी सच का सच क्या है, कभी सामने नहीं आता। और अब तो अदालत के सच को भी कोई नहीं मानता। मीडिया का दावा कि वह सच के लिए मरा जाता है, सच नहीं है। वह सच का बिजनेस करता है, और बिजनेस का सच ‘बिजनेस’ होता है। फिर भी यदि कोई मीडिया कहता है कि हम सच बताते हैं तो वह एक बढ़िया सा ‘झूठ’ बोल रहा होता है। और आजकल तो मीडिया की साख इस कदर गिरी हुई दिखती है कि सड़क चलता आदमी भी मीडिया के ‘सच’ पर ‘शक’ करता है।
आजकल कोई एक सच नहीं होता, बल्कि सब का अपना-अपना सच होता है। इस टिप्पणी में हमने तो कुछ बेहद ताजा और मामूली उदाहरण दिए हैं। कोई खोजने चले तो उसे हर खबर के पीछे दूसरी तीसरी चौथी खबर नजर आएगी और इस तरह हर पल बदलता हुआ सच नजर आएगा। इन दिनों कोई सच न सबका होता है, न एकमात्र होता है। हर आदमी की हैसियत, उसकी ताकत, उसका जोर, उसके संसाधन ही उसके सच को बनाते हैं।
जाहिर है कि ‘सचमुच का सच’ कोई नहीं होता। हर सच बनाया जाता है। मीडिया भी हर पल अपने सच को बनाता है, फिर दिखाता है, फिर बनाता है, फिर दिखाता है। आज के मीडिया का काम सच दिखाना नहीं, बल्कि ‘सच’ का ‘प्रबंध’ करना है। इसलिए आजकल हर दल के पास, हर बड़े आदमी के पास खबरों को मैनेज करने वाले होते हैं, और जब कोई बातचीत से मैनेज नहीं कर पाता तो अपने पव्वे यानी अपने लट्ठ से मैनेज करता है। इस तरह आजकल हर खबर ताकत की खबर होती है। वह ताकत चाहे सत्ता की हो या विपक्ष की हो या फिर आतंकी की हो या किसी भ्रष्टेर की हो।
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