नाइजीरिया : औरतों के लिए संसद में सीटें बनाना कठिन

Last Updated 12 Jun 2021 11:47:05 PM IST

यह खबर नाइजीरिया से मिली है। वहां राजनीति में लिंग समानता को बढ़ावा देने के मकसद से संसद के निचले सदन ने महिलाओं के लिए राष्ट्रीय एसेंबली में 111 सीटें निर्मिंत करने की योजना बनाई है।


नाइजीरिया : औरतों के लिए संसद में सीटें बनाना कठिन

इस समय नाइजीरिया में 109 सीनेटर्स में सिर्फ सात महिलाएं हैं, और निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में सिर्फ  22। कुल सदस्यों की संख्या 360 है। 36 डेप्युटी गवनर्स में चार महिलाएं हैं, और स्टेट गवर्नर्स में एक भी महिला नहीं है-बल्कि कभी महिला स्टेट गवर्नर हुई ही नहीं है।
दरअसल, चुनावी कोटा की तीन श्रेणियां होती हैं-पार्टी में कोटा, विधानमंडलों में कोटा और सुरक्षित सीटें। पार्टी कोटा में राजनैतिक दल अपनी मर्जी से महिलाओं को निश्चित संख्या में उम्मीदवार बनाते हैं। विधानमंडल में कोटा या आरक्षण के लिए संसद को कानून बनाना पड़ता है, जिसके तहत सभी राजनैतिक दलों से अपेक्षित होता है कि निश्चित संख्या में महिला उम्मीदवारों को चुनें। सुरक्षित सीट पर सभी राजनैतिक दलों की महिलाएं किसी सीट के लिए आपस में चुनावी जंग लड़ती हैं। इस प्रणाली का उद्देश्य होता है कि न्यूनतम प्रतिनिधित्व दिया जा सके।
दुनिया भर के ज्यादातर देशों ने किसी-न-किसी कोटा सिस्टम का इस्तेमाल किया है। रवांडा की मिसाल ले सकते हैं। 2003 में रवांडा में नया संविधान लागू किया गया, जिसके तहत संसद की 30 फीसद सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई, और राजनैतिक दलों को सुनिश्चित करने को कहा गया कि महिलाएं कम-से-कम 30 फीसद निर्वाचित पदों पर काबिज हों। स्पेन में कानून के तहत चुनावी उम्मीदवारों में हर जेंडर का कम-से-कम 40 फीसद प्रतिनिधित्व होना जरूरी है। मैक्सिको में भी स्वैच्छिक कोटा प्रणाली है, जिसमें पार्टी स्तर पर हर जेंडर का कम से कम 40 फीसद प्रतिनिधित्व होना चाहिए। विधायी स्तर पर भी कोटा निर्धारित किया गया है। 2021 तक अफगानिस्तान, बांग्लादेश, चीन, नेपाल, पाकिस्तान जैसे 26 देशों ने निचले या एक सदन में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित कर दी हैं।  

नाइजीरिया के ओबाफेमी एवोलोवो यूनिर्वसटिी की राजनीति शास्त्र की प्राध्यापिका एवं जेंडर स्पेशलिस्ट डैमिलोला अगबालोजोबी अपने देश की संसद में महिलाओं के लिए अतिरिक्त सीटें बनाने की योजना को उतना प्रभावी नहीं मानतीं। उनके हिसाब से महिला नेताओं पर लोग भरोसा नहीं करते, खुद महिलाएं राजनीति में हिंसा और गला काट होड़ से परेशान होती हैं, और पितृसत्तात्मक संरचनाओं में दाखिल होने से हिचकिचाती हैं। इस सिलसिले में हम हॉर्वर्ड की बिजनेस प्रोफेसर रोजाबेथ कैंटर की बात याद कर सकते हैं। सत्तर के दशक में उन्होंने ग्रुप डायनामिक्स-‘क्रिटिकल मास’ की अवधारणा दी थी। हालांकि वह कॉरपोरेट सेल्स से संबंधित थी पर राजनीति पर भी लागू होती है। कैंटर ने कहा था कि किसी समूह में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 35 से 40 फीसद होता है तो वे अपने टोकन स्टेटस से ऊपर उठ जाती हैं। लोग भी उन्हें औरत नहीं, सिर्फ  व्यक्ति के रूप में देखने लगते हैं। ज्यादा औरतें उम्मीदवार बनाई जाएंगी तो लोग उन्हें महत्त्व देने लगेंगे।
अपने देश का हाल भी देख लें। 17वीं लोक सभा में महिलाएं पहले से अधिक संख्या (78) में पहुंची हैं। कुल 716 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था। इस हिसाब से सदन में महिलाओं की मौजूदगी करीब 14 फीसद है। महिलाओं का प्रदर्शन निरंतर बेहतर हो रहा है। पहली लोक सभा में महिला सांसद 5 फीसद थीं, पिछली लोक सभा में इनकी संख्या 62 थी।

माशा


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