मीडिया : आलोचना और देशद्रोह
बहुत दिन बाद पत्रकारिता के लिए एक ‘अच्छी खबर’ आई है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रसिद्ध पत्रकार विनोद दुआ पर लगे ‘देशद्रोह’ के आरोप को खारिज कर दिया है और राज्यसत्ता की आलोचना को पत्रकारिता के धर्म की तरह देखा है।
आलोचना और देशद्रोह |
उम्मीद है कि इस फैसले के बाद राज्यसत्ता के कथित-अकथित दबाव के आगे झुकी हुई पत्रकारिता की कमर कुछ सीधी होगी!
यहां विनोद दुआ पर किए गए ‘देशद्रोह’ के आरोप के कारणों को देख लिया जाए। विनोद दुआ सत्ता की आलोचना करने वाले पत्रकार माने जाते हैं। विनोद के जिस वीडियो कार्यक्रम को यूट्यूब पर देख हिमाचल प्रदेश के एक भाजपा कार्यकर्ता ने ‘देशद्रोह’ का केस किया वह वीडियो विनोद दुआ की ‘स्टाइल’ में सत्ता की ‘कथनी’ और ‘करनी’ के भेद पर ‘विडंबनात्मक कटाक्ष’ करता है। सत्रह मिनट से कुछ अधिक समय के इस वीडियो में (जो ‘यूट्यूब’ पर उपलब्ध है) विनोद दुआ ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नारे को ‘एक और जुमला’ कहते हुए अपनी कमेंटरी शुरू करते हैं और सत्ता के अनेक अंतर्विरोधों पर विडंबनात्मक टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ‘एक जुमला और गिरा..’। पहले पंद्रह लाख रुपये देने का जुमला गिरा था फिर ये वाला ‘जुमला’ गिरा था फिर वो वाला ‘जुमला’ गिरा और अब यह ‘आत्मनिर्भर भारत’ का जुमला गिरा’ है..। वे कहते हैं कि एक ओर आत्मनिर्भर का नारा दिया जा रहा है, दूसरी ओर दुनिया के देशों से कर्ज या दान मांगा जा रहा है। अपने चुटकी लेने वाले अंदाज में विनोद ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नारे का जमकर उपहास उड़ाते हैं।
सत्ता की आलोचना करना देशद्रोह नहीं
विनोद के टीवी कार्यक्रमों को जानने वाले जानते हैं कि विनोद की ‘चुटकी’ लेने वाली ‘वक्रोक्ति पूर्ण’ शैली पुरानी है, जिसमें कोई ‘उग्रता’ नहीं होती, लेकिन जो अपनी बारीक मार से सत्ता के ‘बड़बोलेपन’ की हवा निकालती रहती है। उनके अन्य न्यूज कार्यक्रमों की शैली भी ऐसी ही रही है। विवादित वीडियो में वे केंद्र सरकार के कई नारों की खिंचाई करते हैं। सत्ता की खिल्ली उड़ाना, उसकी खिंचाई करना उस पर तीखे कटाक्ष कसना, पत्रकारिता की अति लोकप्रिय शैली है, विनोद जिसका भरपूर इस्तेमाल किया करते हैं। इसके सिवा इस वीडियो में ऐसा कुछ नहीं है, जो विनोद को ‘देशद्रोही’ ठहरा सके। विनोद के केस को निपटाते हुए अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि सत्ता की आलोचना करना देशद्रोह नहीं है और हर पत्रकार ‘1962 के केदारनाथ सिंह केस के फैसले’ के अनुसार आलोचना करने के लिए सुरक्षित है। अगर आलोचना की आजादी नहीं होती तो यह जनतंत्र के अनुसार न होगा..। जाहिर है कि इस फैसले का असर और ऐसे बहुत से केसों पर पड़ना है, जो सत्ता की आलोचना या उसके ऊपर कटाक्ष करने मात्रा के लिए ‘देशद्रोह’ के आरोपित बनाए गए हैं।
फैसले का स्वागत
इससे पत्रकारिता को नया ‘अभयदान’ मिलता है। ‘एडीटर्स गिल्ड’ से लेकर ‘भारतीय महिला प्रेस कोर’ ने भी इस फैसले का स्वागत किया है। ‘प्रेस काउंसिल’ ने तो यहां तक कहा है कि अंग्रेजों के जमाने के ‘देशद्रोह’ के इस कानून को रद्द किया जाना चाहिए। इस कानून का दुरुपयोग सभी राज्यसत्ताएं करती आई हैं, लेकिन पिछले बरसों में ऐसे केस बढ़े हैं। उदाहरण के लिए 2016 में देशद्रोह के 34 केस हुए थे तो 2017 में 58 केस हुए और 2019 में 90 केस हुए। लेकिन एक दो केस को छोड़ किसी में पुलिस देशद्रोह सिद्ध नहीं कर पाई है। फिर भी इसका इस्तेमाल किया जाता रहा है।
‘देशद्रोह’ का आरोप मढ़ने की ‘कल्चर’ डरी हुई सत्ताओं की कल्चर है। ‘देशद्रोह’ के इस खेल में मीडिया का वह हिस्सा भी शामिल दिखता है, जो अपने को ‘देशप्रेमी’ और ‘राष्ट्रवादी’ घोषित करता रहा है, और जरा भी ‘असहमत’ दिखते मीडिया को ‘देशविरोधी’ के रंग में रंगकर दिखाता रहा है। इसके लिए उसने अपने से ‘भिन्न’ पत्रकारों को ‘खान मारकेट गैंग’ या ‘लुटियंस गैंग’ नाम देकर ‘टारगेट’ किया है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला समस्त पत्रकारिता को भयमुक्त करता है
यह फैसला समस्त पत्रकारिता को भयमुक्त करता है, मगर अफसोस कि दो चैनलों को छोड़ तीसरे किसी चैनल ने इस फैसले को जरूरी तवज्जो नहीं दी है। लेकिन इस फैसले से कोई पत्रकार यह न समझे कि अपनी पत्रकारिता कोई ‘क्रांतिकारी पत्रकारिता’ है, जो सत्ता को पलटने के लिए काम करती है। सच सिर्फ इतना है कि अधिकांश पत्रकार ‘पापी पेट’ और ‘कॅरियर के वास्ते’ काम करते हैं, और अवसर आते ही अपने ‘वक्ती मास्टर्स’ के ‘भौंपू’ बन जाते हैं। मास्टर बदलता है, तो वो बदल जाते हैं। ऐसे में किसी के ‘कटाक्ष’ को कोई ‘देशद्रोह’ समझता है, तो उसकी समझ पर तरस ही आ सकता है।
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