सरोकार : औरतों को कैसे प्रताड़ित करते हैं धार्मिक कानून!

Last Updated 05 Jun 2021 11:39:42 PM IST

धार्मिंक कठमुल्लापन महिलाओं को तरह-तरह से त्रस्त करता रहा है। हाल ही में न्यूयॉर्क में इसकी एक मिसाल देखने को मिली। खबरों के मुताबिक, वहां के एक ऑर्थोडॉक्स ज्यूइश (यहूदी) इन्क्लेव में बड़े बड़े अक्षरों में एक बिलबोर्ड पर लिखा था- ‘डोविड वेसरमैन। अपनी बीवी को गेट दे दो।’


औरतों को कैसे प्रताड़ित करते हैं धार्मिक कानून!

अब यह गेट क्या होता है? गेट एक ऐसा दस्तावेज होता है जोकि ऑर्थोडॉक्स यहूदी पुरु ष अपनी बीवियों को तलाक के समय देते हैं। इस दस्तावेज का मतलब होता है कि धार्मिंक कानून के हिसाब से तलाक हो गया है, लेकिन पति ही यह तय करता है कि तलाक कब होगा, और क्या तलाक सचमुच हो गया है। इस दस्तावेज के बिना औरतों के लिए जीवन में आगे बढ़ना संभव नहीं होता। उसे ‘अगुनाह’ यानी जंजीरों में जकड़ा हुआ माना जाता है। कहने का मतलब यह है कि वह अपनी पिछली शादी में ही बंधी रहती है।

यूएस : यूं तलाक कोई गुनाह नहीं माना जाता

न्यूयॉर्क के इस मामले में पति यानी डोविड वेसरमैन ने अपनी बीवी को तलाक के सात साल बाद भी ‘गेट’ नहीं दिया है। इसलिए बीवी यानी नेचामा ने इस नये तरीके का इस्तेमाल किया है। पति को सार्वजनिक स्तर पर शर्मिंन्दा करने का। इसके अलावा उसकी तरफ से दो रैलियां भी की गई हैं। एक रैली सास के घर के सामने जहां डोविड इस समय रह रहा है, और दूसरी सास के स्कूल के सामने जहां वह पढ़ाती है। अमेरिका में 10 फीसद यहूदी खुद को ऑर्थोडॉक्स मानते हैं और इस समुदाय में तलाक की दर सिर्फ  10 फीसद है। यूं तलाक वहां कोई गुनाह नहीं माना जाता लेकिन सामाजिक स्तर पर यह स्वीकार्य भी नहीं क्योंकि यहूदी धर्म में घर की जीवन की धुरी होता है। और इसका ज्यादातर भार औरतों को ही उठाना पड़ता है। नेचामा की कहानी कोई अकेली नहीं है, जिस पर सार्वजनिक चर्चा हो रही है। पिछले दो महीने के दौरान दर्जन भर से ज्यादा औरतों ने अपने अनुभवों को साझा करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया है। कोई कह सकता है कि अदालत में तलाक हो जाने के बावजूद औरतों को ‘गेट’ की क्या जरूरत है? पर यह इतना आसान नहीं होता। किसी धार्मिंक समुदाय से अलग हो जाना, बहुत मायने रखता है। अपना सामाजिक और पेशेवर नेटवर्क, अपने पारिवारिक रिश्ते-सब कुछ छोड़ दे। इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। वह भी किसी एक शख्स की जिद की वजह से। इस बात की जिद कि वह अपनी बीवी को शादी के बंधन में जकड़े रखना चाहता है। अपनी मर्जी से।

महिलाओं के लिए पर्सनल कानूनों का दंश भारत में

ऐसे पर्सनल कानूनों का दंश भारत में भी औरतों को झेलना पड़ता है। कई साल पहले तीन तलाक पर जबरदस्त सिर-फुटौव्वल हुई थी, पर पतियों से तलाक लेने के लिए ही नहीं, बच्चों की कस्टडी के लिए, माता-पिता के साथ के लिए, कारोबार या जमीन-जायदाद पर अपने हक के लिए-औरतों को अपने अधिकार के लिए हर धर्म और समाज में संघर्ष करना पड़ता है। यहां तक कि धर्मनिरपेक्ष कानूनों में भी उन्हें उनके हक से महरूम करने के कई प्रावधान हैं, मगर औरतें खुद इनसे वाकिफ नहीं हैं। सिर्फ  पर्सनल लॉ ही नहीं-भारत में कई राज्यों के कानून भी औरत विरोधी हैं। गुजरात में पुरु ष चाहे तो एक औरत से शादी करे और दूसरी से ‘मैत्री करार’। मजिस्ट्रेट के सामने ‘शात प्रेम’ का वादा करके वह जेल जाने से बच सकता है। गोवा का कानून कहता है कि हिंदू पुरु ष दूसरी शादी कर सकते हैं, अगर उनकी बीवी 25 साल की उम्र तक बच्चा पैदा करने में कामयाब न हों या 30 साल की उम्र तक लड़का पैदा न करें।

माशा


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