वैश्विकी : केजरीवाल का विदेश विवाद
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल घरेलू राजनीति में ही नहीं बल्कि विदेश मामलों में भी चर्चा में आ गए हैं।
वैश्विकी : केजरीवाल का विदेश विवाद |
सिंगापुर सरकार की आलोचना करने का शिकार बने केजरीवाल को कुछ सांत्वना अमेरिका से मिली है। भारत में अमेरिका के राजदूत डेनियल स्मिथ ने केजरीवाल से मुलाकात की और उन्हें भरोसा दिलाया कि बाइडेन प्रशासन दिल्ली और भारत की जनता के साथ खड़ा है। अमेरिकी राजदूत ने केजरीवाल से मुलाकात का जो समय चुना उसे राजनीतिक हलकों में अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जा सकता है। बहुत संभावना है कि मुलाकात का समय पहले से तय हो। नई दिल्ली में स्थित विदेशी दूतावासों के लिए यह स्वाभाविक है कि वे राजधानी की स्वास्थ्य संबंधों की हालात की जानकारी हासिल करे। इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि दिल्ली सरकार टीकाकरण का काम तेज करने के लिए विदेशों से वैक्सीन आपूर्ति का प्रयास कर रही है। चर्चा में यह मुद्दा भी आया होगा, लेकिन कोरोना महामारी का देश में जिस तरह राजनीतिकरण हुआ है उस नजरिये से इस मुलाकात के कुछ और अर्थ भी निकाले जा सकते हैं। यह मुलाकात विदेश मंत्री एस. जयशंकर की इस फटकार के बाद हुई जिसमें उन्होंने कहा था कि केजरीवाल भारत की सोच और विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
महामारी के दूसरे दौर में भारत की सहायता के लिए आगे आने वालों में सिंगापुर पहले देशों में शामिल था। जिस समय नई दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर चिकित्सा सामग्री और उपकरण पहुंच रहे थे उसी दौरान केजरीवाल ने वायरस के सिंगापुर वैरियेंट (रूप) का हव्वा खड़ा कर दिया। छोटे देश सिंगापुर ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भारत के उच्चायुक्त को तलब किया। साथ ही अप्रत्याशित रूप से यह भी चेतावनी दी कि सिंगापुर सरकार केजरीवाल पर भ्रामक सूचना और अफवाह फैलाने पर रोक संबंधी कानून लागू कर सकती है। इस कानून के तहत लंबी सजा और भारी जुर्माने का प्रावधान है। भारत के निर्वाचित मुख्यमंत्री के विरुद्ध किसी दूसरे देश की यह चेतावनी संभवत: पहली बार आई है। विदेश मंत्रालय ने सिंगापुर की आहत भावनाओं पर मरहम लगाने का काम किया तथा केजरीवाल के कथन से स्वयं को अलग किया। इस पृष्ठभूमि में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अमेरिकी राजदूत ने केजरीवाल के साथ मुलाकात कर क्या संदेश देने की कोशिश की? क्या यह संदेश पीएम नरेन्द्र मोदी और विदेश मंत्रालय के लिए था?
कोरोना वायरस और उसके बदलते हुए वैरियेंट को किसी देश के साथ जोड़ने का काम अलग-अलग देशों में अलग-अलग समय पर हुआ है। पिछले वर्ष तब के अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप हमेशा चीनी वायरस या वुहान वायरस का उल्लेख करते थे। बाद में वायरस के रूप बदलने पर इसके ब्रिटेन, ईरान, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका आदि वैरियेंट नामकरण सामने आए। हाल में इंडियन वैरियेंट चर्चा में है। भारत की घरेलू राजनीति में मोदी विरोधी नेता खुलकर इंडियन वैरियेंट शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं। मीडिया में इस तरह की गैर जिम्मेदाराना हरकत के क्या दूरगामी परिणाम होंगे, इस पर लोग ध्यान नहीं दे रहे हैं। यही कारण है कि केंद्र सरकार को निर्देश जारी करना पड़ा कि सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्मो से इंडियन वैरियेंट शब्दावली हटा ली जाए। यह देखने वाली बात होगी कि बड़ी आईटी कंपनियां इस निर्देश का पालन करतीं है या नहीं।
कोरोना महामारी ने विभिन्न देशों की शासन प्रणालियों पर भी सवाल खड़ा किया है। इस पर बहस छिड़ सकती है कि कौन सी शासन प्रणाली कोरोना महामारी जैसी आपदा का सामना करने में ज्यादा सक्षम है। लोकतांत्रिक प्रणाली में महामारी का मुकाबला कारगर तरीके से हो सकता है या किसी गैर लोकतांत्रिक प्रणाली में? इस सिलसिले में चीन और पाकिस्तान का उदाहरण दिया जा सकता है। महामारी के उद्गम स्थल चीन में पिछले कई महीनों से संक्रमण का नामोनिशान नहीं है। पाकिस्तान भी यह दावा कर सकता है कि वहां के हालात भारत की तुलना में अच्छे हैं, लेकिन चीन और पाकिस्तान के दावे गले के नीचे नहीं उतरते। चीन में संक्रमण और मरने वालों की वास्तविक संख्या शायद ही कभी पता लग सके। संक्रमण रोकने के एहतियाती उपाय गैर लोकतांत्रिक देशों में लागू किए जा सकते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक देशों में जोर-जबरदस्ती ज्यादा नहीं चल सकती।
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