सांस्कृतिक राजनीति और मीडिया

Last Updated 28 Mar 2021 01:18:25 AM IST

एक चैनल पर बहस चल रही है। मोदी के एक विपक्षी प्रवक्ता का कहना है कि जिन दिनों देश में कोरोना का कहर चल रहा है, वे बांग्लादेश में घूम रहे हैं।


सांस्कृतिक राजनीति और मीडिया

टीमएसी कहती है कि देश की इकनॉमी की गिरावट के विपरीत अनुपात में मोदी की दाढ़ी बढ़ती जा रही है। विपक्ष की तीसरी टिप्पणी यह रही कि चुनाव बंगाल में लेकिन जाते हैं बांग्लादेश में! क्यों? क्या वहां से वोट मांग रहे हैं? मोदी अपने पद का दुरुपयोग कर रहे हैं। हम शिकायत करेंगे। 
लेकिन मोदी जी अपने निंदकों की निंदा के बावजूद बांग्लादेश गए हैं। बंग बंधु मुजीब के शताब्दी समारोह में तो शामिल हुए ही हैं, साथ ही ढाका के ‘मतुआ मंदिर’ भी गए हैं। मतुआ निम्न जाति के माने जाते हैं। बंगाल में उनका वोट साठ-सत्तर सीटों पर निर्णायक है। कहने की जरूरत नहीं कि चुनाव के दौरान बीच बांग्लादेश की यात्रा में भाजपा की समकालीन सांस्कृतिक राजनीति के सारे सूत्र सक्रिय हैं, जिन्हें विपक्षी नहीं पहचानते। वे सिर्फ प्रतिक्रिया करते हैं।
मोदी और भाजपा हर बार ऐसे ही करते हैं। वे अपनी चुनावी राजनीति को ‘सांस्कृतिक मुहावरे’ में बनाते हैं और वही चौबीस सात के लाइव टीवी पर और सोशल मीडिया में लगातार बजाई जाती है। ऐसे सांस्कृतिक सीन ही स्मृति में टिके रहते हैं और विपक्ष  इस  पर सिर्फ रिएक्ट करता रह जाता है। पहल भाजपा के हाथ में ही रहती है। यही भाजपा की ‘यूएसपी’ है। हम चैनलों पर दिखे दो स्मरणीय सीनों को याद करें जो मोदी ने बनाए हैं। एक बंगाल की उस जनसभा के मंच का सीन जब एक युवा नेता मोदी के चरण छूने के लिए जैसे ही झुकता है, वैसे ही वे उसे कंधे से पकड़ कर उठा लेते हैं और चरण छूने से मना करते हुए उसी के चरणों को छूने लगते हैं। सामने बैठी भीड़ पर इसका असर तुरंत होता है। वो ताली बजाने लगती है। विपक्ष इसे ड्रामा कहता रह जाता है जबकि मोदी ताली बटोरते हैं। अपनी छवि के प्रति इतनी सजगता किसी अन्य नेता में नहीं दिखती।

अब आप चाहें मोदी को लाख कोसें, सोशल मीडिया पर उनकी लाख निंदा करें लेकिन ऐसे ‘नाटकीय सीनों’ का असर देर तक रहता है। ऐसे सीन विपक्षी नेता भी दे सकते हैं, लेकिन वे ऐसे सीन नहीं बनाते क्योंकि उनका इस तरह के आचरण की सभ्यता में यकीन नहीं दिखता है। वे ऐसे सीनों से बचते दिखते हैं। छोटा बड़े के पैर छुए, यह अपने यहां स्वाभाविक माना जाता है लेकिन बड़ा छोटे के पैर छुए इसे बड़े का बड़प्पन माना जाता है। मोदी ने यही किया। अब आप कुछ कहें। इस एक सीन से उन्होंने मंच लूट लिया।
अब दूसरा सीन बांग्लादेश में मोदी द्वारा मतुआ मंदिर में पूजा करने का रहा जिसमें वे पहले मूर्तियों के आगे साष्टांग प्रणाम करते हैं, और पंखा झलते हैं और फिर मतुआ समुदाय को संबेधित करते हैं। यह सीन भी अतिरिक्त भावुकता से भर जाता है। उनके बोलने को सुनकर कई महिलाएं सुबकती नजर आती हैं, जैसे कोई उनकी सुध लेने वाला आ गया हो।
देखें तो इसमें कोई ‘हार्ड पॉलिटिक्स’ नहीं है। न ‘विकास’ कोई का नारा है, न कोई ठोस ‘आर्थिक नीति’ है, न ‘राजनीति’ है, बल्कि एक सांस्कृतिक धार्मिक कर्मकांड है, जिसमें बांग्लादेश में रहने वाले मतुआ समुदाय से कोई वायदा नहीं है, सिर्फ एक सांस्कृतिक आश्वासन है कि मैं तुम्हारा हूं, तुम मेरे हो। और यही चीज मतदान के दिन खबर चैनलों पर लाइव प्रसारित हेाती है। विपक्ष समझता है कि यह वोटरों को पटाने का एक तरीका है, लेकिन मोदी के लिए यह मतुआ लोगों से अपना भावनात्मक सूत्र जोड़ना है। 
यहां सिर्फ देश का भावनात्मक संदेश है कि भारत में भी कोई है, जो आपका ‘सहयात्री’ है। किसी मुस्लिम बहुल समाज, जहां तत्ववादी हावी हो रहे हों, में अकेले और कमजोर वर्ग के लोगों को अपने से जोड़ना अपने आप में एक बड़ा सांस्कृतिक संदेश है, जो न ममता ने दिया, न लेफ्ट ने दिया। हम मोदी को पसंद करें या न करें, मोदी की इस ‘आऊटरीच’ की सांस्कृतिक राजनीति के दूरगामी महत्त्व को नजरदांज नहीं कर सकते जो अभी से दो हजार चौबीस की तैयारी करती है। एक चरचा में एक एंकर ने सही कहा है कि बंगाल में भाजपा ने जो अपनी समूची ताकत झोंकी है, उसका एक उद्देश्य चुनाव तो है ही लेकिन इससे भी अधिक  असली टारगेट दो हजार चौबीस का चुनाव है, जिसकी तैयारी भाजपा ने अभी से शुरू कर दी है।
लेकिन अपना विपक्ष जब देता है सिर्फ प्रतिक्रिया देता है। वह आज से आगे की नहीं सेाचता जबकि भाजपा पांच-दस बरस आगे की सेाचती है। यही भाजपा की दुज्रेयतर के मूल में है। भाजपा की यही ‘सांस्कृतिक राजनीति’ है।

सुधीश पचौरी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment