न्यूजीलैंड भी चला भारत के रास्ते

Last Updated 28 Mar 2021 12:59:15 AM IST

न्यूजीलैंड की संसद ने एक नया कानून पास किया है। अब उन कपल्स को वैतनिक छुट्टी मिलेगी, जिनका गर्भपात हो गया है, या बच्चा मृत पैदा हुआ है।


न्यूजीलैंड भी चला भारत के रास्ते

इसका मकसद है कि कपल को बच्चा खोने के दर्द को सहने, उससे उबरने का समय मिल सके। संसद ने इसके लिए शोक भत्ता बनाया है जिससे इस शोक से गुजरने वाले कामकाजी कपल्स को वेतन समेत तीन दिन की छु्ट्टी मिलेगी। वैसे यह जानकारी देना जरूरी है कि ऐसी छुट्टी देने वाला न्यूजीलैंड दूसरा देश है। पहला देश कौन है-यह शायद कम लोग जानते हों। वह देश, और कोई नहीं, भारत है। न्यूजीलैंड की लेबर पार्टी की सांसद जिनी एंडरसन का कहना है कि स्टिलबर्थ यानी मृत बच्चा पैदा होना कपल्स के लिए शर्मिदगी बनता है। इसके कारण लोग इसके बारे में बात नहीं कर पाते। इस बिल को संसद में लाने वाली एंडरसन मानती हैं कि गर्भपात के साथ जो दुख आता है वह कोई बीमारी नहीं है, एक क्षति है, और क्षति से उबरने में समय लगता है, शारीरिक और मानसिक रूप से बेहतर होने में वक्त लगता है। वैसे यह छुट्टी उस महिला के पार्टनर को भी मिलने की व्यवस्था है जिसका गर्भपात हुआ हो।

मानवाधिकारों के मामले में न्यूजीलैंड अव्वल रहा है। सबसे पहले महिलाओं को वोटिंग का अधिकार न्यूजीलैंड ने ही दिया था। पिछले साल ही वहां की सरकार ने देश में कानून पास करके गर्भपात को अपराध की श्रेणी से बाहर निकाला। ऐसा कानून भारत में भी है। लेकिन भारत में प्रजनन स्वास्थ्य बड़ी समस्या है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 4 के डेटा के अनुसार, देश की हर सात में से एक औरत को गर्भावस्था के दौरान अस्पताल नहीं ले जाया जाता। देश के गांवों में सिर्फ  16।7% औरतों को पूरी एंटीनेटल केयर मिल पाती है जबकि शहरी इलाकों में 31।1% औरतों को यह सेवा मिलती है। न्यूयार्क के एशिया पेसेफिक जरनल ऑफ पब्लिक हेल्थ में पब्लिश आर्टकिल में कहा गया है कि भारत में 48।5% औरतें सेहत के बारे में खुद फैसले नहीं लेतीं। आर्टकिल का टाइटिल है-विमेन्स ऑटोनॉमी इन डिसिजन मेकिंग फॉर हेल्थ केयर इन साउथ एशिया। इसके अलावा पिछले दिनों जब पॉलिसिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम/डिसऑर्डर (पीसीओ/डी) यानी ओवरी में सिस्ट की समस्या पर ऑनलाइन अध्ययन किया गया तो पता चला कि डॉक्टर तक इसे गंभीरता से नहीं लेते। इनके लिए अलग से क्लिनिक कम ही हैं। अधिकतर क्लिनिक तो इनर्फटििलटी का ही इलाज करते हैं। इसीलिए पीसीओ/डी का इलाज कराने गई औरतों को भी तभी गंभीरता से लिया जाता है, जब वे मां बनने की इच्छा जाहिर करती हैं। जो औरतें कन्सीव नहीं करना चाहतीं, उन्हें सही देखभाल नहीं मिलती।
यूं भारत इतना बड़ा और विविध है तो समस्याएं भी तमाम तरह की। हर राज्य में अपनी किस्म की। नॉर्थ ईस्ट में सेहत इस बात पर भी निर्भर है कि ट्रांसपोर्ट नहीं है और रास्ते मुश्किल हैं। उत्तर भारत में दलित होने के नाते सही देखभाल नहीं मिल पाती क्योंकि दाइयां या डॉक्टर उसे हाथ नहीं लगाना पसंद करते। बिहार, प. बंगाल, जैसे बहुत से राज्यों में हेल्थ केयर प्रोवाइडर्स का रवैया औरतों को अस्पतालों में जाने से रोकता है। वहां उन्हें गाली-गलौच, मार-पीट तक का सामना करना पड़ता है। आदिवासी बहुल इलाकों में प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स आसपास होते ही नहीं। बाकी पैसे की कमी तो एक बड़ा फैक्टर है ही। ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क की स्टडीज का यह कहना है।

माशा


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