मीडिया : फेक न्यूज, आल्ट ट्रूथ और पोस्ट ट्रुथ
सोशल मीडिया ने मीडिया शब्दकोश को तीन नये पारिभाषिक शब्द दिए हैं। एक है ‘फेक न्यूज’; और दूसरा है ‘आल्ट ट्रुथ’ और तीसरा है ‘पोस्ट ट्रुथ’।
मीडिया : फेक न्यूज, आल्ट ट्रूथ और पोस्ट ट्रुथ |
‘फेक न्यूज’ यानी ऐसी खबर, जिसका सप्रमाण सत्यापन न किया जा सके। ‘आल्ट ट्रुथ’ यानी खबर का एक सच नहीं, बहुत से सच संभव हैं। ‘पोस्ट ट्रुथ’ यानी ऐसा सत्य जो सत्य के घटने के बाद बनाया जाता है। इनमें से ‘फेक न्यूज’ का ताजा उदाहरण छब्बीस जनवरी के दिन वाली ट्रैक्टर रैली की आइटीओ वाली घटना के लाइव कवरेज में देखा जा सकता है। जिन्होंने उस दिन का लाइव कवरेज टीवी पर देखा है, वे याद कर सकते हैं कि उस दिन किस तरह रैली वालों ने ट्रैक्टरों का ‘बुलडोजरों’ की तरह आकामक तरीके से इस्तेमाल किया और लोगों में दहशत फैलाई।
एक नामी चैनल का रिपोर्टर ट्रैक्टरों से किए जाते हमलों को लाइव लेकिन क्रिटिकली दिखा रहा है कि मेरे कैमरामैन को चोट लगी है, मुझे धमकी दी है..मैं पुलिस की सुरक्षा में खड़े होकर रिपोर्ट कर रहा हूं..कि इतने में उसी चैनल का एक नामी एंकर रिपोर्टर बनकर अवतरित होता है, और क्रिटिकल कहानी को सॉफ्ट करने लगता है। वह वहां जाता है जहां एक आदमी मरा पड़ा है। वहां जाकर पूछता है तो भीड़ उसे गरिया कर भगा देती है। वहां से वह जैसे ही हटता है, तो एक ट्वीट कर देता है, जिसमें मारे गए युवक को ‘गोली से मरा’ बताया जाता है। उसे शायद भीड़ का डर है..‘गोली से मार जाने’ की यह खबर आग की तरह फैलती है। एंकर के मित्र इसे जम के रिट्वीट करते हैं। ट्वीट के ‘झूठ’ को काटने के लिए पुलिस उस सीसीटीवी के फुटेज को कुछ देर बाद मीडिया को दिखाती है, जिसके लांग शॉट में तेज स्पीड से दौड़ता आता ट्रैक्टर एक बैरिकेड से टकरा कर पलट जाता है। युवा ड्राइवर उसके नीचे आ जाता है। उसके सिर पर गहरी चोट लगती है, और उसकी दु:खद मृत्यु हो जाती है। बाद में यूपी के अस्पताल किए गए पेस्टमार्टम से भी सिद्ध होता है कि उसकी अपफसोसनाक मौत पुलिस की गोली से नहीं हुई।
इस तरह, जरा सी देर में उस युवा की दु:खद मृत्यु के ‘दो सत्य’ बन जाते हैं। एक ‘गोली से मारे जाने’ का सत्य। दूसरा ‘दुर्घटना से मारे जाने’ का सत्य। पहला सत्य फेक साबित होता है, दूसरा सत्य ही सत्य प्रमाणित होता है। उधर, पत्रकारिता के उच्च मानकों की खातिर और उसकी इस गलती के कारण उसका चैनल एंकर को दंडित करता है, और उस पर ‘केस’ भी हो जाता है। जाहिर है कि सब कुछ इरादतन न होकर ‘जल्दबाजी’ और ‘खबर देने की वनअपमैशिप’ के चक्कर में हुआ। उस युवा की दुखद मृत्यृ का कारण भी उसकी हड़बड़ी रही। फिर उस एंकर की हड़बड़ी ने उससे गड़बड़ी कराई और उसके मित्रों ने उसे रिट्वीट करके अपनी भी इज्जत गंवाई। एक ‘फेक’ (झूठ) को ‘सत्य’ बना दिया गया। फिर उस ‘झूठ’ को पुलिस ने नंगा कर दिया। मामला अब न्यायालयाधीन है।
यह भी बहुत सी ‘फेक न्यूज’ की तरह एक ‘फेक न्यूज’ की कहानी है, जो लाइव प्रसारण में हमारे सामने बनी। ट्रैक्टर के तेजी से आने बैरिकेड से जान-बूझकर टकराने और ड्राइवर के उसके नीचे आ जाने की कहानी सीसीटीवी फुटेज में साफ दिखती है। इसलिए गोली से मारे जाने की बात यूं भी असत्य दिखती है। फिर पोस्टमार्टम ने भी सिद्ध कर दिया कि गोली नहीं मारी गई। बहरहाल, जैसा कि हमने कहा मामला न्यायाधीन है, इसलिए पत्रकार का सत्य क्या है, यह बाद में ही पता लगेगा।
अब हम ‘आल्ट ट्रुथ’ और ‘पोस्ट ट्रुथ’ की तरह की एक ताजा खबर देखें। दस-बारह लोगों की भीड़ द्वारा मंगोलपुरी में रिंकू नामक एक युवक की हत्या कर दी जाती है। पुलिस कुछ हमलावरों को गिरफ्तार करती है। रिंकू का भाई और मां कहती है कि वो राममंदिर के लिए चंदा इकट्ठा करता था। एक खास समुदाय के युवा उस पर तानाकाशी करते थे। वो ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करता था। उनको अच्छा नहीं लगता था। शायद इसलिए..इसी घटना का ‘दूसरा पाठ’ है कि जन्म दिन की पार्टी थी। वे सब एक रेस्त्रां में पार्टी करने गए थे। वहीं झगड़ा हुआ और वो मारा गया..‘तीसरा पाठ’ है कि वे बिजनेस पार्टनर थे। आपस में झगड़ा हुआ और वो मारा गया..मीडिया की सारी कामका अब उसकी हत्या की व्याख्या को लेकर है। कुछ के लिए यह साफ ‘सांप्रदायिक मॉब लिंचिंग’ है, जिसे आहत संप्रदाय के लोग बार-बार बता रहे हैं, और चुप लगा जाने वालों को ‘धिक्कार’ रहे हैं, लेकिन ये सारी व्याख्याएं आल्ट ट्रुथ और उत्तर सत्य की कथाएं हैं, जो राजनीतिक ताकत के हिसाब बनेंगी!
ऐसे में काहे का सत्य काहे का असत्य!
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