तारापुर शहीद दिवस : गौरवशाली अतीत को बिसराना नहीं होगा
भारतवर्ष के गौरवशाली अतीत का स्वर्णिम अध्याय लिखने वाले तारापुर के बलिदानी वीर हमारी स्मृतियों में जीवित हैं।
तारापुर शहीद दिवस : गौरवशाली अतीत को बिसराना नहीं होगा |
तारापुर के बलिदानियों के राष्ट्र प्रेम के तत्व ने कालचक्र की सीमाओं के पार जाकर उन्हें अमर कर दिया और आज जब भारत आजादी के 75वें वर्ष का समारोह अमृत महोत्सव मना रहा है, ऐसे में इतिहास में अछूते रह गए उन राष्ट्र नायकों की जीवनी, उनसे जुड़े स्थलों और घटनाओं को प्रकाश में लाने का बेहतरीन अवसर है, जिनके कारण हमें आजादी मिली।
प्रसन्नता का विषय यह है कि ऐसे राष्ट्रनायकों और स्वातंत्र्य वीरों को, घटनाओं को और इनसे जुड़े स्थलों को दुनिया के सामने लाकर उनका यथोचित सम्मान करने के विजन को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफलतापूर्वक क्रियान्वियत किया है। इसी कड़ी में बीते 31 जनवरी को ‘मन की बात’ में मोदी जी ने इतिहास के एक और अछूते अध्याय का जिक्र किया तो देश भर में तारापुर शहीद दिवस का इतिहास खोजा जाने लगा है। आइये जानते हैं, 15 फरवरी 1932 का वो बलिदानी दिन तारापुर ही नहीं समूचे भारतवर्ष के लिए गौरव का दिन है, जब क्रांतिकारियों के धावक दल ने थाना पर फहराते हुए जान की बाजी लगा दी थी। वीर बलिदानियों की धरती ‘तारापुर’ (मुंगेर, बिहार) में राष्ट्रवाद का अंकुर सन् 1857 की ऐतिहासिक क्रांति के समय से ही फूटने लगा था और बंगाल से बिहार की विभाजन के बाद वह अपना आकार लेने लगा था।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तारापुर का हिमालय ‘ढोल पहाड़ी’ इंडियन लिबरेशन आर्मी का शिविर था, जिसका संचालन क्रांतिकारी बिरेन्द्र सिंह करते थे। इनके प्रमुख सहायक डॉ. भुवनेर सिंह थे। तारापुर में सेनानियों का दूसरा बड़ा केंद्र संग्रामपुर प्रखंड के सुपौर जमुआ ग्राम स्थित ‘श्रीभवन’ से संचालित होता था, जहां उस वक्त कांग्रेस से बड़े-बड़े नेता भी आया करते थे। दरअसल, 23 मार्च 1931 को सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी से पूरे देश में युवाओं में उबाल था। ऐसे में बिहार के अंग क्षेत्र का मुंगेर, भागलपुर, खगड़िया, बेगूसराय सहित कोसी के इलाकों तक जनमानस इन छोटी-छोटी घटनाओं से सुलग ही रहा था। उधर 1931 में गांधी-इरविन समझौता भंग हो चुका था। 27 दिसम्बर 1931 को गोलमेज सम्मेलन लंदन से लौटते ही 1 जनवरी 1932 को जब महात्मा गांधी ने पुन: सविनय अवज्ञा आंदोलन को प्रारंभ कर दिया तो ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर सभी कांग्रेस कार्यालयों पर भारत का झंडा (तत्कालीन कांग्रेस का झंडा) उतार कर ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक लहरा दिया। 4 जनवरी को गांधी जी गिरफ्तार हो गए थे। सरदार पटेल, नेहरू और राजेंद्र बाबू जैसे दिग्गज नेताओं सहित हर प्रांत के प्रमुख लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजी हुकूमत इस दमनात्मक कार्रवाई और भारत पर उनकी नाजायज हुकूमत के खिलाफ देशभर में एक आक्रोश पनपने लगा था। ऐसे वातावरण में अंग्रेजों के क्रिया की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। लार्ड विलिंग्डन के उस ऐतिहासिक दमन से मुंगेर भी अछूता नहीं रह पाया था। श्रीकृष्ण सिंह, नेमधारी सिंह, निरापद मुखर्जी, पंडित दशरथ झा, बासुकीनाथ राय दीनानाथ सहाय, जय मंगल शास्त्री आदि गिरफ्तार हो चुके थे। ऐसे में युद्धक समिति के प्रधान सरदार शार्दुल सिंह कवीर द्वारा जारी संकल्प पत्र क्रांतिकारियों में आजादी का उन्माद पैदा कर गया और इसकी प्रतिध्वनि 15 फरवरी 1932 को तारापुर के जरिये लंदन ने भी सुनी। सरदार शार्दुल सिंह द्वारा प्रेषित संकल्प पत्र में स्पष्ट आह्वान था कि सभी सरकारी भवनों पर तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज लहराया जाए।
उनका निर्देश था कि प्रत्येक थाना क्षेत्र में पांच ध्वजवाहकों का जत्था राष्ट्रीय झंडा लेकर अंग्रेज सरकार के भवनों पर धावा बोलेगा। युद्धक समिति के प्रधान सरदार शार्दुल सिंह कवीर के आदेश को कार्यान्वित करने के लिए वर्तमान में संग्रामपुर प्रखंड के सुपोर-जमुआ गांव के ‘श्री भवन’ में कई क्रांतिकारियों और कांग्रेसियों ने हिस्सा लिया। बैठक में मदन गोपाल सिंह (ग्राम सुपोर-जमुआ), त्रिपुरारी कुमार सिंह (सुपोर-जमुआ), महावीर प्रसाद सिंह (महेशपुर), कार्तिक मंडल (चनकी) और परमानन्द झा (पसराहा) सहित दर्जनों सदस्यों का धावक दल चयनित किया गया। 15 फरवरी 1932 सोमवार को दोपहर 2 बजे धावक दल ने ब्रिटिश थाना पर धावा बोला और अंतत: ध्वज वाहक दल के मदन गोपाल सिंह ने तारापुर थाना पर तिरंगा फहरा दिया। मामला ज्यादा उग्र हुआ तो पुलिस बल ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई, जिसमें 34 क्रांतिकारी शहीद हुए एवं सैकड़ों क्रांतिकारी घायल हुए। तिरंगे की आन पर खुद को बलिदान कर देने वाले 34 वीर शहीदों में से मात्र 13 की ही पहचान हो पाई थी।
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