सरोकार : औरतों की सेहत के लिए भी खतरनाक है गैर-बराबरी
स्वास्थ्य के क्षेत्र में लिंगभेद नई बात नहीं। यह कोविड-19 से पहले का चलन है। पहले भी महिलाएं पुरुषों से कम कमाती थीं।
सरोकार : औरतों की सेहत के लिए भी खतरनाक है गैर-बराबरी |
बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी निभाती थीं, लेकिन महामारी ने उन पर ज्यादा जिम्मेदारियां थोपी हैं। सबसे ज्यादा असर हुआ है, उनकी सेहत पर। बेशक, वे पुरुषों से लंबा जीवन जीती हैं, लेकिन उनकी सेहत ज्यादा खराब रहती है। कुछ लोग ऐसा बायलॉजिकल वजहों से बताते हैं। रिप्रोडक्टिव हारमोंस महिलाओं के शरीर को प्रभावित करते हैं।
फिर भी अध्ययनों से पता चलता है कि मनुष्य का स्वास्थ्य उसकी सामाजिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। जिन समाजों में गैर-बराबरी ज्यादा होती है, वहां लोगों की सेहत कम अच्छी होती है। गैर-बराबरी लिंग आधारित भी होती है। जाहिर सी बात है, इसका असर उनकी सेहत पर भी पड़ता है। यूनिर्वसटिी ऑफ न्यू मैक्सिको में एवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी की एसोसिएट प्रोफेसर सिओबान मैटीसन और स्टेट यूनिर्वसटिी ऑफ न्यूयॉर्क की बिंघमटन यूनिर्वसटिी की एसोसिएट प्रोफेसर कैथरीन वांडर ने एक अध्ययन किया है। यह लिंग आधारित भेदभाव और स्वास्थ्य पर उसके असर पर केंद्रित है। अमेरिका के प्रेसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित अध्ययन दक्षिण पश्चिम चीन के दो समुदायों पर किया गया है। दोनों खेतिहर समुदाय मोसो नामक जातीय अल्पसंख्यकों की उपजातियां हैं। इनकी भाषा, धर्म वगैरह समान हैं, लेकिन एक चीज फर्क है। समुदाय के सदस्यों के परस्पर संबंध। कुछ समुदाय मातृ प्रधान हैं, तो कुछ पितृ प्रधान। जिन समुदायों में महिलाएं परिवार की मुखिया हैं, वहां महिलाओं की सेहत अच्छी है। जिनमें पुरु ष परिवार के मुखिया हैं, वहां महिलाओं की सेहत कम अच्छी है। चूंकि परिवार के महिला प्रधान होने से महिलाओं के हाथों में दौलत आती है, और अपने फैसले लेने की ताकत भी।
यूं चीन का अध्ययन हर समाज पर लागू होता है। हमारे यहां फैसले लेने के लिए औरतें आजाद नहीं हैं। इसीलिए अक्सर इसका असर उनकी सेहत पर पड़ता है। खासकर, रिप्रोडक्टिव हेल्थ पर। भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के चौथे चक्र की रिपोर्ट कहती है कि अक्सर परिवार नियोजन के उपाय करने की जिम्मेदारी सिर्फ औरतों की होती है। 83 फीसद औरतों ने कहा कि परिवार नियोजन का फैसला संयुक्त फैसला होता है। वे अकेले इसका बोझ क्यों उठाएं। हमारे यहां पितृ प्रधान समाज है, इसीलिए औरतों की सेहत की चिंता नहीं करता। हर सात में से एक औरत को गर्भावस्था के दौरान अस्पताल नहीं ले जाया जाता। इनमें से आधी औरतों को अस्पताल में उचित देखभाल नहीं मिल पाती क्योंकि पति या परिजन इसे जरूरी नहीं समझते। गांवों में सिर्फ 16.7 फीसद औरतों को पूरी देखभाल मिल पाती है, जबकि शहरी इलाकों में 31.1 फीसद औरतों को। न्यूयार्क के एशिया पेसेफिक जरनल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि भारत में 48.5 फीसद औरतें सेहत के बारे में खुद फैसले नहीं लेतीं। लेख का शीषर्क है-विमेन्स ऑटोनॉमी इन डिसिजन मेकिंग फॉर हेल्थ केयर इन साउथ एशिया। इसकी वजह यह भी है कि शहरी इलाकों में सिर्फ 14.7 फीसद और ग्रामीण इलाकों में 24.8 फीसद औरतें श्रम बल का हिस्सा हैं। जब कमाती नहीं तो कई बार फैसले लेने के लिए आजाद भी नहीं होतीं। आर्थिक आजादी, दूसरी सभी तरह की आजादियों की शुरु आत जो होती है।
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