रेल बजट : पटरी पर लाने की तैयारी
हमारे देश में आज भी रेलों से चलने और ट्रेन में दिखने वाला समाज ही देश का असली प्रतिनिधित्व करता है, यह बात आज भी उतनी ही खरी है जितनी गांधीजी के समय में हुआ करती थी।
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आगे-पीछे तमाम राजनेताओं ने (रेल मंत्रियों ने भी) कुछ ऐसी ही बातें खास तौर से रेल बजट के मौके पर की हैं।
वर्ष 2016 के बाद जबसे रेलवे आम बजट का हिस्सा बनाई गई है, तब से इसके पूरे निजाम को लेकर हालांकि सनसनी का तत्व कम हो गया है, लेकिन आज भी इसके चलते चक्कों का हमारी जिंदगी पर कितना असर होता था, पिछले साल मार्च में लगाए गए लॉकडाउन से यह साबित हो चुका है। ऐसे में जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण रेलवे को एक लाख करोड़ से ज्यादा रु पये देने का ऐलान करते हुए 2030 की राष्ट्रीय रेल योजना लागू करने और रेलवे में प्राइवेट निवेश की घोषणा करती हैं तो सवाल उठता है कि क्या इन सपनों से अलग भारतीय रेलवे अपनी कड़वी हकीकतों का कोई हल निकाल पाएगी।
बजट के नजरिये से रेलवे को देखें तो वित्त मंत्री के ये ऐलान फिलहाल कोविड-19 की दिक्कतों के कारण आधी-अधूरी सेवाओं के साथ चल रही इस राष्ट्रीय यातायात प्रणाली में कुछ जान पड़ने की उम्मीद की जा सकती है। जैसे 46 हजार किलोमीटर लंबी रेलवे लाइन पर ट्रेनों को बिजली से दौड़ना, पर्यटन महत्त्व की जगहों वाले रेलवे ट्रैक पर नये व आधुनिक कोच वाली ट्रेनें चलाना और कोच्चि, बेंगलुरु , चेन्नई, नागपुर, नासिक जैसे कई शहरों में मेट्रो परियोजना को अमली जामा पहनाना-ये सब ऐसे काम हैं, जिनसे रेलवे की तरक्की की राहें खुलती हैं, लेकिन एक तुलना करें तो पता चलता है कि रेलवे पर फोकस बढ़ाने में हुई लेट-लतीफी काफी महंगी पड़ रही है।
इस तुलना का आधार वह पड़ोसी चीन है, जिससे अभी हमारे रिश्ते बेहद नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के वक्त भारत का रेलवे नेटवर्क चीन से दोगुना था, लेकिन चीन आज हमसे मीलों आगे नजर आ रहा है। पर आज हम उसके जैसी तेजी का कोई प्लान बनाते हैं, तो उसकी समय-सीमा भी आज से करीब दस साल बाद की रखते हैं। प्रश्न यह है कि आखिर रेलवे की खामियां क्या हैं? अगर समस्या उसे पेशेवर ढंग से चलाने और उसके आधुनिकीकरण के सपने को साकार करने के साथ-साथ उसे लाभ कमाने वाले संस्थान में बदलना है, तो यात्री कम मिलने की सूरत में उसे अपनी तेजस एक्सप्रेस का संचालन महीनों के लिए बंद करना पड़ता है, लेकिन जब रवैया पेशेवराना किया जाता है तो उसे राजधानी एक्सप्रेस जैसी ट्रेन एक अकेली पैसेंजर (बीएचयू की अनन्या के लिए ) के वास्ते चलानी पड़ती है। असल में, रेलवे को आधुनिक और पेशेवराना बनाने के लिए निजीकरण का जो नया रास्ता चुना गया है, वह खुद में कई अंतद्र्वद्व समेटे हुए है। उसके अच्छे भविष्य के रास्ते निकालने और उसे लीक से हटाकर चलाने को लेकर सबसे अहम संशय यही है कि क्या इसके लिए निजीकरण ही अकेला उपाय हो सकता है? प्राइवेट ट्रेनें चलाने, स्टेशनों का निजीकरण करने और रेलों की खानपान व्यवस्था निजी हाथों में सौंपने जैसे तमाम उपायों के बारे में अभी तक यही समझ बन पाई है कि जब तक प्राइवेट कंपनियों या प्राइवेट ऑपरेटरों को रेलवे से जुड़े कामकाज में मोटा फायदा मिलता है, वे उसका कुशलता से संचालन करते हैं, लेकिन किसी कारणवश मुनाफे पर आंच आती है तो वे उनसे कन्नी काट लेते हैं। तेजस एक्सप्रेस का संचालन रोकने का उदाहरण यह बताने को काफी है कि पर्याप्त संख्या में यात्री नहीं मिलने पर निजी कंपनियां किसी अकेले पैसेंजर को गंतव्य तक पहुंचाने की गलती हरगिज नहीं कर सकती हैं। ऐसे में एक बड़ा मसला निजी कंपनियों और रेलवे के बीच पैदा होने वाले विवादों का उठता है, क्योंकि फिलहाल उनके बीच किसी झगड़े को सुलझान की कोई व्यवस्था नहीं है। नियामक (रेगुलेटर) की व्यवस्था किए बगैर रेलवे के निजीकरण के सारे उपाय अंतत: रेलवे और फिर आम जनता का ही सिरदर्द बन जाते हैं।
समस्या की जड़ इसमें है कि सरकार अभी भी रेलवे को एक कंपनी के रूप में विकसित करने की बजाय एक सरकारी विभाग की तरह ही देखती है। ऐसे में गरीबों के लिए सस्ती टिकट दरें रखने और दूसरों समेत खुद अपने कर्मचारियों की सहूलियतों का सारा दबाव सब्सिडी के रूप में रेलवे पर ही डाल दी जाती है। पूछना होगा कि क्या रेलवे समाजसेवा का कोई जरिया है या आर्थिक सेवा। इसी तरह जिन चीजों को प्राइवेट कंपनियों के हवाले करना चाहिए, उन्हें रेलवे ने खुद पर ओढ़ रखा है। जैसे अस्पताल और स्कूल। इन सवालों को व्यावहारिकता के साथ हल किया जाएगा, तो शायद रेलवे को इसरो की तरह ही एक असरदार और कमाऊ संगठन में बदलना मुश्किल नहीं होगा।
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