हिरासत में मौत : सबके लिए सुरक्षित हो न्याय
हिरासत में मौत के मामले जघन्य अपराध की श्रेणी में आते हैं। दुनिया भर में हिरासत में मौत (कस्टोडियल डेथ) को लेकर तमाम बड़े सवाल उठते रहे हैं।
हिरासत में मौत : सबके लिए सुरक्षित हो न्याय |
राष्ट्रीय मानवाधिकार सहित बड़े नागरिक हितैषी संस्थान इसे स्वतंत्र जांच का मामला मानते रहे हैं। तथापि न्यायालय के आदेशों में लगातार संशोधन के चलते अब तक ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है। धारा 176 (1 ए) के आलोक में राष्ट्रीय मानव अधिकार की हालिया टिप्पणी संजीदा सवाल खड़ा करती है। आयोग ने 2010 के आदेश में विसंगति का अवलोकन किया और इसे वापस लेने का फैसला किया।
खबर के अनुसार अपराध प्रक्रिया (सीआरपीसी) की धारा 176 (1 ए) की गलत तरीके से व्याख्या करने के दस साल बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने 2010 के एक आदेश को निरस्त कर दिया है, जिसमें हिरासत में होने वाली मौतों की जांच का दायरा केवल उन मामलों तक सीमित है, जहां गुंडागर्दी या संदेह के अपराध को उचित रूप में स्थापित किया गया हो या जहां कोई सबूत या अपराध का आरोप नहीं है, वहां न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा ‘जांच’ अनिवार्य नहीं है। सितम्बर, 2020 में इस संशोधित आदेश के अनुसार हिरासत में होने वाली मौतों के सभी मामलों, जिनमें प्राकृतिक मौतें या किसी बीमारी के कारण होने वाली मौतें शामिल हैं, की जांच न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट करेंगे।
हालांकि मौजूदा नियमों के अनुसार साल 2005 में लागू धारा 176 (1 ए) सीआरपीसी के प्रावधानों के अनुसार हिरासत में मौत, बलात्कार और लापता होने के मामलों में न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट जांच अनिवार्र्य होगी। मजिस्ट्रेट को अप्राकृतिक मौत के मामलों में पूछताछ करने का अधिकार है। वह पुलिस अधिकारी द्वारा की जा रही जांच के अलावा मौत के कारणों की जांच कर सकता है। यह एक सामान्य सशक्तिकरण का प्रावधान है, जो मजिस्ट्रेट को ऐसी जांच का विवेक देता है। पुलिस अत्याचार या हिरासत में मौत के मामलों में शायद ही कभी पुलिसकर्मिंयों की संलिप्तता के सबूत उपलब्ध होते हैं। कारण यह कि पुलिस को खुद अपने ही खिलाफ जांच करने के लिए कहा जाता है, जो एक बड़ी समस्या है। उच्चतम न्यायालय पुलिस के ‘आपसी भाईचारे’ पर पहले ही टिप्पणी कर चुका है।
एक अप्रैल, 2019 से लेकर 31 मार्च, 2020 तक देश में पुलिस हिरासत में मारे गए लोगों की संख्या 113 थी जबकि न्यायिक हिरासत में मरने वालों का आंकड़ा 1585 रहा है। इसके अलावा, उक्त अवधि के दौरान दिल्ली में 47, महाराष्ट्र में 91, गुजरात में 53, हरियाणा में 74, राजस्थान में 79, उड़ीसा में 59 और तमिलनाडु में 57 लोगों की न्यायिक हिरासत में मौत हो गई। नागरिकों की व्यक्तिगत आजादी और जिंदगी की हिफाजत करने के लिए भले ही संवैधानिक प्रावधान बने हों, मगर हकीकत यह है कि पुलिस हिरासत में यातना और मौत की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। ऐसे मामलों की अदालतों द्वारा र्भत्सना किए जाने के बावजूद पुलिस द्वारा इन पर संज्ञान नहीं लिया जा रहा।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2019 में हिरासत में हुई मौतों के कुल 85 मामलों में से 33 को आत्महत्या और 36 को बीमारियों के कारण दर्ज किया गया था। पुलिस हिरासत में शारीरिक हमलों के कारण केवल दो मौतें दर्ज की गई। इसी तरह, पिछले एक दशक में (कुल 1,004 में से) पुलिस हिरासत में लगभग 70% मौतें प्राकृतिक कारणों से बीमारी, आत्महत्या या मृत्यु के कारण हुई हैं। कई मामलों में जांच बाद में सीबीआई, विशेष जांच टीम जैसी स्वतंत्र एजेंसियों को सौंप दी जाती है। हालांकि इससे परिणाम कितने ठोस निकलेंगे, इसे लेकर कोई आश्वासन नहीं दिया जाता।
अगर साक्ष्य जुटाने के शुरुआती महत्त्वपूर्ण चरणों मसलन, पोस्टमार्टम, पूछताछ आदि में हेर-फेर की गई हो तब तो परिणाम निश्चित ही अनुकूल नहीं निकलते। परिणामस्वरूप, राज्य के पुलिस बल हिरासत में ज्यादातर मौतों की घटनाओं को प्राकृतिक मौत या आत्महत्या के रूप में दर्ज कर रहे हैं। सवाल जीवन से जुड़े मौलिक अधिकारों का है। कानून द्वारा शासित एक सभ्य समाज में कस्टडी में मौत न केवल संगीन अपितु जघन्य अपराध है। क्या गिरफ्तारी के बाद किसी व्यक्ति के जीवन के मौलिक अधिकार समाप्त हो जाते हैं? सवाल गंभीर और बड़ा है। इस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
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