विश्लेषण : कहीं, महफिल में ही न खो जाए कला

Last Updated 27 Dec 2020 12:22:09 AM IST

इस क्रिसमस के मौके पर सोशल मीडिया पर एक खत खूब साझा किया गया। यह प्रसिद्ध कलाकार चार्ली चैप्लिन द्वारा अपनी बेटी को लिखा गया खत है, जो क्रिसमस की रात लिखा गया। गौरतलब है कि चैप्लिन की पुण्यतिथि भी क्रिसमस पर ही पड़ती है।


विश्लेषण : कहीं, महफिल में ही न खो जाए कला

खत में चैप्लिन का अपनी बेटी से गहरा रिश्ता और प्यार तो दिखता ही है, बचपन में लोरियां सुनाकर सुलाने जैसे प्रसंगों की याद करते हुए चैप्लिन भावुक हो उठते हैं, लेकिन खत में इस महान कलाकार ने कला और कलाकार के संबंध में जो विचार व्यक्त किए हैं, वे इस खत को बहुत ही महत्त्वपूर्ण बना देते हैं। चैप्लिन हास्य कलाकार थे, खुद को वह विदूषक कहते हैं, उनकी बेटी नृत्यांगना है। खत के लिखे जाने के वक्त पेरिस में उसकी नृत्य प्रस्तुति का जिक्र चैप्लिन करते हैं। चैप्लिन खत में लिखते हैं, ‘तुम्हारी फोटो वहां उस मेज पर है और यहां मेरे दिल में भी, पर तुम कहां हो? वहां सपने जैसे भव्य शहर पेरिस में! चैम्प्स एलिसस के शानदार मंच पर नृत्य कर रही हो। इस रात के सन्नाटे में मैं तुम्हारे कदमों की आहट सुन सकता हूं। सितारा बनो और चमकती रहो। परंतु यदि दशर्कों का उत्साह और उनकी प्रशंसा तुम्हें मदहोश करती है, या उनसे उपहार में मिले फूलों की सुगंध तुम्हारे सिर चढ़ती है, तो चुपके से एक कोने में बैठकर मेरा खत पढ़ते हुए अपने दिल की आवाज सुनना’।

चैप्लिन आगे लिखते हैं, ‘मैं चार्ली हूं! बूढ़ा विदूषक! मैं  फटी पेंट में नाचा करता था और मेरी राजकुमारी! तुम रेशम की खूबसूरत ड्रेस में नाचती हो। ये नृत्य और ये शाबाशी तुम्हें सातवें आसमान पर ले जाने के लिए सक्षम हैं। उड़ो और उड़ो, पर ध्यान रखना कि तुम्हारे पांव सदा धरती पर टिके रहें। तुम्हें लोगों की जिंदगी को करीब से देखना चाहिए। गलियों-बाजारों में नाच दिखाते नर्तकों को देखो जो कड़कड़ाती सर्दी और भूख से तड़प रहे हैं। मैं भी उन जैसा था। मैं जानता हूं कि पेट की भूख किसे कहते हैं! मैं जानता हूं कि सिर पर छत न होने का क्या दंश होता है। मैंने देखा है, मदद के लिए उछाले गए सिक्कों से उसके आत्म-सम्मान को छलनी होते हुए’।
चैप्लिन बेटी को लिखते हैं, ‘मैंने 40 वर्षो से भी अधिक समय तक लोगों का मनोरंजन किया पर हंसने से अधिक मैं रोया हूं। जिस दुनिया में तुम रहती हो वहा नाच-गाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आधी रात के बाद जब तुम थियेटर से बाहर आओगी तो तुम अपने समृद्ध और संपन्न चाहने वालों को तो भूल सकती हो, पर जिस टैक्सी में बैठकर तुम अपने घर तक आओ, उस टैक्सी ड्राइवर से यह पूछना मत भूलना कि उसकी पत्नी कैसी है? यदि वह उम्मीद से है तो क्या अजन्मे बच्चे के नन्हे कपड़ों के लिए उसके पास पैसे हैं? उसकी जेब में कुछ पैसे डालना न भूलना..कभी-कभार बसों में जाना, सब-वे से गुजरना, कभी पैदल चलकर शहर में घूमना। लोगों को ध्यान से देखना, विधवाओं और अनाथों को दया-दृष्टि से देखना। कम से कम दिन में एक बार खुद से यह अवश्य कहना कि मैं भी उन जैसी हूं’।
चैप्लिन बहुत ही मार्मिंक बात लिखते हैं, ‘कला किसी कलाकार को पंख देने से पहले उसके पांवों को लहूलुहान जरूर करती है। यदि किसी दिन तुम्हें लगने लगे कि तुम अपने दशर्कों से बड़ी हो तो उसी दिन मंच छोड़कर भाग जाना, टैक्सी पकड़ना और पेरिस के किसी भी कोने में चली जाना। मैं जानता हूं कि वहां तुम्हें अपने जैसी कितनी नृत्यागनाएं मिलेंगी। तुमसे भी अधिक सुंदर और प्रतिभावान फर्क सिर्फ  इतना है कि उनके पास थियेटर की चकाचौंध और चमकीली रोशनी नहीं। उनकी सर्चलाइट चंद्रमा है..दो सिक्के खर्च करने के बाद सोचना कि तुम्हारे हाथ में पकड़ा तीसरा सिक्का तुम्हारा नहीं है, यह उस अज्ञात व्यक्ति का है, जिसे इसकी बेहद जरूरत है’।
चैप्लिन उस बेटी से गरीबों, मजदूरों के बारे में सोचने की बात कह रहे हैं, जो पेरिस जैसे खूबसूरत शहर में रंगीन प्रकाशों के बीच रेशम के कपड़ों में नृत्य करने वाली नृत्यांगना हैं। वे कला और कलाकार को हमेशा इनकी फिक्र करने की बात कह रहे हैं। यह 1965 का खत है। याद करते चलें कि इससे काफी पहले 1936 में विख्यात साहित्यकार प्रेमचंद लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के अपने ऐतिहासिक भाषण में भी तो यही कहते हैं, ‘कला नाम था और अभी है संकुचित रूप पूजा का, शब्द योजना का, भाव निबंधन का। उसकी दृष्टि अभी इतनी व्यापक नहीं है  कि जीवन-संग्राम में सौंदर्य का परमोत्कर्ष देखे..साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है’। क्या कला को बार-बार इन कसौटियों पर खुद को कसते नहीं रहना चाहिए? हमेशा यह देखते रहने की जरूरत है कि कला और कलाकार के सरोकार में जीवन-संग्राम का सौंदर्य कितना है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह महफिल सजाने और मनोरंजन का सामान जुटाने में ही लगी रहे!

आलोक पराड़कर


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