चारधाम योजना : पर्यावरणीय हितों का ख्याल जरूरी
पहाड़ी राज्यों के दुर्गम स्थानों को पार करने के लिए निश्चित ही सुदृढ़ व सुगम सड़कों के निर्माण की आवश्यकता है।
चारधाम योजना : पर्यावरणीय हितों का ख्याल जरूरी |
लेकिन यह पहाड़ों की बर्बादी का कारण नहीं बनना चाहिए। जैसा कि मध्य हिमालय (उत्तराखण्ड) में स्थित चारधाम सड़क चौड़ीकरण में दिखाई दे रहा है। सन 2016 में जब से इस पर काम तेजी से हुआ है, इसको लेकर प्रभावित लोगों और भूगर्भविदों ने पर्यावरण को लेकर कई सवाल खड़े किए हैं। जिस पर सरकार का ध्यान उतना नहीं गया, जितना उच्च अदालतों ने संज्ञान लिया है।
सर्वोच्च अदालत ने अगस्त 2019 में ‘सिटिजन फॉर ग्रीन दून’ की याचिका पर चारधाम सड़क चौड़ीकरण कार्य से समाज व पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभाव के अध्ययन के लिए एक हाई पॉवर कमेटी बनाई है। इस कमेटी के अघ्यक्ष डॉ. रवि चोपड़ा ने अक्टूबर और दिसम्बर 2019 में प्रभावित क्षेत्रों का भ्रमण किया है। वे अपनी रिपोर्ट अदालत को मार्च 2020 तक सौंपेंगे। इसके बाद भी हर तीन महीने में हाईपावर कमेटी निर्माण कार्य का निरीक्षण भी करेगी।
केंद्रीय सड़क एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी पहाड़ों में जिस हरित निर्माण तकनीक के अनुसार सड़कों के चौड़ीकरण की बात कर रहे हैं, उनके इन दावों के विपरीत चारधाम सड़क चौड़ीकरण योजना का लाखों टन मलबा पवित्र भागीरथी, अलंकनंदा, यमुना व मंदाकिनी में सीधे उड़ेला जा रहा है। कहीं-कहीं पर दिखाने के वास्ते डंपिग जोन बने भी हैं तो उनकी क्षमता पूरे मलबे को समेटने की नहीं है। नियमानुसार मलबा रोकने के लिए रिटेनिंग वॉल, डंपिग जोन का डिजायन और इसके आस-पास कोई ऐसा बोर्ड नहीं लगा है, जिसमें क्षेत्रफल व स्थान का विवरण लिखा हो। निर्माण कंपनियां जिन्हें डंपिग जोन बता रही है उसमें घास और चौड़ी पत्ती के पौधों का रोपण नहीं किया गया है। मलबा निस्तारण प्रबंधन नियम-2016 भी इसके लिए बना है, मगर इसके पालन के लिए कोई देख-भाल करने वाला नहीं है।
सच्चाई यह है कि भू-स्खलन के लिए संवेदनशील पहाड़ों में किस तरह का निर्माण हो इसकी वैज्ञानिक तकनीक होने के बावजूद भी उपयोग में नहीं है। स्थिति यह कि निर्माण शुरू होते ही संवेदनशील जगहों पर बड़ी जेसीबी मशीनों से खुदाई की जाती है। पहाड़ों की कंटिग ढालदार करने की बजाय जल्दी काम पूरा करने के लिए सीधे में काट दिया जाता है, जो आगे पूरे पहाड़ को टूटने के लिए मजबूर कर देता है। इसी कारण डेंजर जोन बढ़ रहे हैं।
पहाड़ों के साथ इस अनियंत्रित छेड़छाड़ के कारण अब तक कई मजदूर, यात्री, कांवड़िये और स्थानीय लोग मारे गए हैं। कई स्थानों पर पहाड़ लगातार गिरने से एलाईनमेंट भी बदलने पड़ रहे हैं। यह बड़ी मशीनों व विस्फोटों के उपयोग के कारण पैदा हुई है। हैरानी यह भी कि यहां की मंदाकिनी नदी पर दो पावर प्रोजक्ट केदारनाथ आपदा में पूरी तरह ध्वस्त हुए थे। दोबारा इन्हीं पहाड़ों को काटकर बाढ़ व भू-स्खलन को न्योता दिया जा रहा है। यहां की भौगोलिक संरचना के अनुसार 18-24 मीटर चौड़ी सड़क बनाने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है; इसी वजह से पचास हजार से भी अधिक हरे पेड़ अब तक काटे गए हैं।
गंगोत्री में हजारों हरे देवदारों के पेड़ों को काटने की तैयारी हैं। इको सेंसेटिव जोन के कारण यहां इस बेहद चौड़ी सड़क निर्माण की स्वीकृति मिलनी बाकी है, वैसे भागीरथी को उद्गम से लेकर आगे 100 किमी. यानी उत्तरकाशी तक वैज्ञानिकों ने अति संवेदनशील बताया है, क्योंकि इस क्षेत्र में बाढ़, भू-स्खलन, भूकम्प लगातार प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन सामरिक दृष्टि से भी इस क्षेत्र का महत्त्व है।
यही वजह है कि 2018 में थल सेना प्रमुख बिपिन रावत ने गंगोत्री के पर्यावरण के प्रति चिंता जाहिर की थी। उनका संकेत था कि पहाड़ों में मजबूत सड़क की जरूरत है, लेकिन बड़े स्तर पर पर्यावरण विनाश न हो। 1962-65 में गंगोत्री मोटर मार्ग के निर्माण के समय सुखी, जसपुर, झाला आदि गांव ने अपनी जमीन निशुल्क दी थी। आज इसी स्थान को नजरांदाज करते हुए सड़क दूसरी दिशा में ले जाने का प्रयास हो रहा है। वह भी ऐसे स्थान से जहां देवदार समेत कई बहुमूल्य प्रजाति के घने जंगल हैं, और जंगली जानवरों के सघन आवास मौजूद हैं। यहां कटान के लिए हजारों देवदार के पेड़ों पर निशान लगे हैं। इसके विरोध में सुखी टॉप (8000 फीट) में एकत्रित होकर गांव वालों ने पेड़ों को बचाने के लिए रक्षा सूत्र बांधें हैं, पेड़ों की रक्षा का संकल्प लेते हुए लोगों ने सुखी गांव से ही मौजूदा सड़क को यथावत रखने की मांग की है। पहाड़ों में इस तरह की घोर लापरवाही के कई ज्वलंत मुद्दे हैं। देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट की हाई पावर कमेटी चारधाम परियोजना से प्रभावित समाज और पर्यावरण को कितना न्याय दिलवा सकेगी?
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