अन्न की बर्बादी : ..ताकि बची रहे धरती
भोजन की बर्बादी कमोबेश हर देश में होती है। यहां तक कि विकसित देशों (अमेरिका अव्वल) में अन्न की छोटे मुल्कों के मुकाबले कहीं ज्यादा होती है।
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शायद भोजन की महत्ता को समझते हुए सऊदी अरब में बचा खाना फेंकने की आदत के विरोध में लोग एकजुट हो रहे हैं। अब लोग ऐसी थाली और तरीका अमल में ला रहे हैं, जिससे परोसा हुआ खाना ज्यादा दिखाई दे। दरअसल, सऊदी में ज्यादा खाना परोसना अच्छी मेहमान नवाजी और संस्कृति का हिस्सा माना जाता है। इसके लिए थाली में चावल का टीला सा खड़ा कर दिया जाता है। लोग थाली के दोनों ओर से चावल खा लेते हैं, पर बमुश्किल ही बीच तक पहुंच पाते हैं। बाकी खाना नहीं खा पाते, जो बाद में कूड़े में फेंक दिया जाता है। लेकिन अन्न की बर्बादी इस तस्वीर का एक पहलू है। भोजन को बर्बाद होने से बचाकर पर्यावरण को बेहतर बनाया जा सकता है किंतु इससे अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं।
भोजन का फेंका जाना पहली निगाह में भले ही मामूली सी बात प्रतीत हो या फिर एक बड़े कार्यक्रम की अपरिहार्यता बता कर इससे पल्ला झाड़ लिया जाए, लेकिन यह एक गंभीर समस्या है जिसकी प्रकृति विव्यापी है। इस संदर्भ में विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट में खाद्यान्नों की बर्बादी से जुड़ी चुनौतियों का बारीकी से विश्लेषण किया गया है। संगठन द्वारा प्रस्तुत-खाद्य अपव्यय पदचिह्न: प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभाव वाली इस रिपोर्ट में कहा गया है कि खाद्य अपव्यय को रोके बिना खाद्य सुरक्षा सम्भव नहीं है। इस रिपोर्ट में वैश्विक खाद्य अपव्यय का अध्ययन पर्यावरणीय दृष्टिकोण से करते हुए बताया है कि भोजन के अपव्यय से जल, जमीन और जलवायु के साथ साथ जैव-विविधता पर भी बेहद नकारात्मक असर पड़ता है। हर साल 1.3 अरब टन खाना बर्बाद हो जाता है। इस बर्बाद खाने का अधिकतर हिस्सा कचरे के बड़े ढेरों में पहुंच जाता है और जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने लगता है। खाने का बर्बाद होना इंसानों के लिए आज सबसे बड़ी समस्या है। हमारे ग्रह पर लगभग 90 अरब लोग किसी न किसी तरह खाद्य संकट से जूझ रहे हैं और लगभग 82 करोड़ लोगों को खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। एक अनुमान के अनुसार पूरी दुनिया में तैयार किए जाने वाले खाने का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद चला जाता है। खाने की बर्बादी का मतलब सिर्फ खाना बर्बाद होना ही नहीं है। यह पैसों, पानी, ऊर्जा, जमीन और परिवहन साधनों की भी बर्बादी है। अपने खाने को यूं ही छोड़ने का मतलब है जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देना। छोड़ दिया गया खाना आमतौर पर लैंडफिल यानी कचरे के ढेरों को भेज दिया जाता है। वहां ये सड़ता है और मीथेन गैस पैदा करता है। पूरी दुनिया में बर्बाद हुए खाने से पैदा होने वाली ‘ग्रीनहाउस गैसों’ की तुलना देशों से की जाए तो यह अमेरिका और चीन के बाद सबसे ज्यादा ऐसी गैसें पैदा करता है। ‘ग्रीनहाउस गैस’ वातावरण को किस कदर प्रदूषित या नुकसान पहुंचाते हैं, यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है। हाल के वर्षो में पर्यावरण की शुद्धता या कहें प्रदूषण को लेकर हाय-तौबा मची हुई है। यहां तक कि अभी पिछले हफ्ते ही मैड्रिड में पर्यावरण की चिंता में जार-जार हो रहे करीब 200 देशों के प्रतिनिधियों और अधिकारियों की बैठक बिना किसी नतीजे के खत्म हो गई। यानी पर्यावरण को लेकर धनी देश कितने गैरजिम्मेदार हैं, यह जगजाहिर है।
ताजा अध्ययन बताते हैं कि भोजन और खाद्य सामग्री की बर्बादी का सीधा मतलब बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों को व्यर्थ करना है। उदाहरण के लिए फसल उपजाने के लिए पानी की खपत या खाद का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल। भोजन और खाद्यान्न की बर्बादी रोकने के लिए हमें अपने दर्शन और परम्पराओं के पुनर्चितन की जरूरत है। हमें अपनी आदतों को सुधारने की जरूरत है। धर्मगुरुओं एवं स्वयंसेवी संगठनों को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए। इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अभियान सोचें, खाएं और बचाएं भी एक अच्छी पहल है, जिसमें शामिल होकर की भोजन की बर्बादी रोकी जा सकती है। हम सभी को मिलकर इसके लिए सामाजिक चेतना लानी होगी, तभी भोजन की बर्बादी रोकी जा सकती है। इसके अपने घर में फेंके जाने वाले खाने के बारे में आप जितना ज्यादा सोचेंगे, पृथ्वी के अनमोल संसाधनों के संरक्षण की दिशा में आप उतना ही सकारात्मक परिवर्तन ला पाएंगे। खरीदने, पकाने और खाने जैसे छोटे-छोटे कदमों से ही आप पर्यावरण को बचाने में योगदान दे सकते हैं। अर्थात हमें पर्यावरण के वास्ते इस मसले पर ज्यादा संजीदगी और संवेदना से सोचना होगा।
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