झारखंड : होगी महाराष्ट्र की पुनरावृत्ति?
महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद उम्मीद की जा रही थी कि भाजपा उसके बाद होने वाले झारखंड विधानसभा चुनाव में रणनीति बदलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
झारखंड : होगी महाराष्ट्र की पुनरावृत्ति? |
2014 का लोक सभा चुनाव नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा गया था और यही फार्मूला उस साल हुए तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपनाया था। पांच साल बाद 2019 में इन्हीं राज्यों में विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री का चेहरा सामने कर लड़े गए।
इसका हश्र दो राज्यों में दिख चुका है। हरियाणा में तो किसी तरह जजपा के समर्थन से खट्टर ने कुर्सी दोबारा पा ली लेकिन महाराष्ट्र में ऐसा नहीं हो पाया। बल्कि महाराष्ट्र ने बदलते भारत की बदलती राजनीतिक तस्वीर पेश कर दी जहां न विचारधारा का टकराव कोई मायने रखता है, और न परस्पर विरोधी भाव से चुनावी मैदान में उतरे होने का कोई मलाल। सत्ता संघर्ष के इस नवीनतम खेल में भाजपा की परंपरागत साथी शिवसेना को पल्ला झाड़ने में तनिक भी देर नहीं लगी। कुछ ऐसा ही राजनीतिक परिदृश्य झारखंड में भी दिखाई पड़ने लगा है।
भाजपा के साथ सरकार में शामिल रही आजसू ने चुनाव से पहले ही भाजपा का साथ छोड़ दिया। हालांकि भाजपा के चाणक्य अमित शाह अलग चुनाव लड़ने के बावजूद आजसू को अपना मानते हैं। उनका कहना है कि भाजपा अपने बूते पूर्ण बहुमत हासिल तो कर लेगी लेकिन सरकार गंठबंधन की ही बनेगी जिसमें आजसू को भी शामिल किया जाएगा। अमित शाह का यह इकतरफा प्रेम साफ संकेत है कि भाजपा को अपने बूते सरकार बनाने का भरोसा नहीं रहा।
इधर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के नेतृत्व में कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ने सशक्त गठबंधन बनाया है। कांग्रेस को ढाई दर्जन सीटें गठबंधन में मिली हैं। हालांकि मुकाबले में उसके 10-12 उम्मीदवार ही दिख रहे हैं। अलबत्ता, झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार भाजपा को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। आजसू ने भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है, लेकिन उसकी तैयारी पहले से ही दर्जन भर से ज्यादा सीटों पर नहीं थी। विपक्षी दलों में तीसरा कोण बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा ने बनाया है। हालांकि इनके मैदान में होने से विपक्षी वोटों के बंटवारे का खतरा ज्यादा है। फिर भी पिछली बार की तरह भाजपा की राह आसान नहीं दिखती। उसे विपक्ष से कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा है। भाजपा की दूसरी मुश्किल अंतर्कलह है। पिछली सरकार में मंत्री रहे और पुराने भाजपा नेता सरयू राय का टिकट तो कटा ही, कुछ और विधायकों के टिकट भाजपा ने काट दिए। इससे भाजपा के अंदर भितरघात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी एक बार झारखंड का दौरा कर चुके हैं। कई केंद्रीय मंत्रियों का झारखंड आना-जाना लगा है। दिसम्बर के पहले हफ्ते में मोदी का फिर दौरा होना है। साफ है कि भाजपा झारखंड में चुनाव परिणामों को लेकर भीतर ही भीतर भयभीत है। इसलिए संभावना है कि झारखंड में भी हरियाणा या महाराष्ट्र की पुनरावृत्ति हो सकती है। आजसू को लेकर अमित शाह का बयान साफ संकेत है।
केंद्र में एनडीए का हिस्सा बनी दो पार्टयिां- लोजपा और जदयू ने भी भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर दी है यानी उनके उम्मीदवार जो वोट हासिल करेंगे उससे भाजपा के वोटों में ही कमी आएगी। दोनों दलों के उम्मीदवार भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार की आलोचना करके वोट मांग रहे हैं। भाजपा की तीसरी मुश्किल एंटी इनकैंबेंसी है। रघुवर दास को सामने कर भाजपा चुनाव लड़ रही है। उनसे सर्वाधिक नाराज आदिवासी वोटर हैं। विपक्ष उन्हें समझाने में कामयाब रहा है कि उनके जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करने की भाजपा कोशिश कर रही है। सिंदरी और संथाल के गोड्डा में अडानी को जमीन देने के लिए सरकार ने सीएनटी-एसपीटी एक्ट को लचीला बनाया। आदिवासी वोटरों की नाराजगी का फायदा विपक्ष को मिलेगा, इसमें कोई संदेह नहीं। झामुमो नेता और विपक्षी गठबंधन में मुख्यमंत्री का चेहरा हेमंत सोरेन ने आदिवासी वोटरों को गोलबंद करने के लिए कह दिया है कि उन्हें गैर-आदिवासी वोटों की परवाह नहीं है। दूसरी ओर बिजली की लचर स्थिति ने लोगों में नाराजगी पैदा की है। रघुवर ने पिछली बार शपथ के बाद कहा था कि 24 घंटे बिजली नहीं दे पाए तो वोट मांगने नहीं आएंगे।
सच्चाई यह है कि आज भी पावरकट से लोग परेशान हैं। पिछले कुछ पांच-छह सालों में देश में कई ऐसी राजनीतिक परिघटनाएं हुई हैं, जिन्हें बदलते भारत के नये राजनीतिक परिदृश्य के रूप में देखा जा सकता है। इसकी शुरु आत जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के बाद से मानी जा सकती है। भाजपा ने अपनी विचारधारा से अलहदा चलने वाली मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी के साथ 2014 में जब सरकार बनाई तो इसे पत्थर पर दूब के तौर पर जन सामान्य ने देखा था। उसी साल मोदी के नेतृत्व में हुए लोक सभा चुनाव परिणामों से भाजपा इतना उत्साहित थी कि हर राज्य में सरकार बनाने की उम्मीद पालने लगी। इसी क्रम में बेमेल गठबंधन की शुरुआत भाजपा ने की। यह अलग बात है कि विचारधारा के टकराव के कारण भाजपा को पीछे हटना पड़ा और जम्मू-कश्मीर फिर राष्ट्रपति शासन के तहत आ गया। भाजपा ने गोवा और उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी गंठजोड़ के प्रयोग दोहराए और ऐसा वक्त आया जब भाजपा भारत के अधिकतर राज्यों में 2018 तक सरकार बनाने में कामयाब हो गई। लेकिन 2019 आते-आते भाजपा का यह प्रयोग विफल हो गया और भाजपा शासित राज्यों की संख्या घट गई।
राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे सूबे उसके हाथ से निकल गए। बहरहाल, भाजपा के प्रयोग को ही विपक्षी दलों ने अपनाना शुरू कर दिया है। इसमें विचारधारा की कोई बाध्यता नहीं रह गई है। सत्ता हासिल कर लेने का उन्माद राजनीतिक पार्टयिों में दिखाई पड़ रहा है। धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा यह हो गई है कि कांग्रेस केरल में मुस्लिम लीग के साथ सरकार चला रही है तो महाराष्ट्र में हिन्दुत्व के बिना पर खड़ी शिवसेना के साथ जाने में उसे गुरेज नहीं। कट्टर हिन्दूवादी पार्टी शिवसेना को भी धुर विरोधी कांग्रेस व एनसीपी से हाथ मिलाने में तनिक संकोच नहीं हुआ। महाराष्ट्र के साथ ही हुए हरियाणा विधानसभा के चुनाव में जब भाजपा अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आई तो उसे प्रतिद्वंद्वी चौटाला की जजपा के साथ सरकार बनाने को मजबूर होना पड़ा।
| Tweet |