महाराष्ट्र : भारी पड़ती है नादानी
महाराष्ट्र में जनादेश भाजपा (105) और शिवसेना (56) के लिए था क्योंकि दोनों पार्टियों ने चुनाव-पूर्व गठबंधन कर रखा था और लोक सभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ मिलकर लड़े थे।
महाराष्ट्र : भारी पड़ती है नादानी |
लेकिन दोनों एक दूसरे की महत्त्वाकांक्षाओं को संभाल नहीं सकीं और उन्होंने अपने रास्ते बदल लेने का फैसला किया। यदि भाजपा शिवसेना की मांग, ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद, को मान लेती तो भगवा गठबंधन पांच साल का एक और कार्यकाल हासिल कर लेता। इंसानी नादानी की अनदेखी भारी पड़ती है।
अजित पवार बीस साल से ज्यादा समय सरकार में रहे लेकिन कहीं न कहीं समझने में चूक कर गए। हालांकि नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की महाराष्ट्र इकाई को बीस साल से ज्यादा समय से चलाते आ रहे थे, लेकिन जब उन्होंने मराठा सरदार अपने चाचा को चुनौती दी तो एक भी विधायक उनके साथ नजर नहीं आया। वह सपना पाले हुए थे कि एक बार उन्होंने महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली नहीं कि उनके पीछे पार्टी के विधायकों की लाइन लग जाएगी। उसी रोज उनकी चचेरी बहन सुप्रिया सुले, बारामती से लोक सभा सदस्य, ने घोषणा कर दी, ‘परिवार और पार्टी टूट गए’। चूंकि एक भी विधायक ने अजित को समर्थन नहीं दिया इसलिए उनके सामने हथियार डालने के सिवा कोई चारा नहीं रहा। महा विकास अघाड़ी (शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस) की संयुक्त बैठक में बोलते हुए एनसीपी के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल ने कहा, ‘मैं एनसीपी के साथ था, और एनसीपी के साथ रहूंगा’।
उन्होंने इस परिवार के पितृ पुरुष से अनुरोध किया, ‘सुबह का भूला शाम को वापस आता है तो उसे भूला नहीं कहते’।
हालांकि विधानसभा भवन के द्वार पर सुप्रिया सुले ने पूरी गर्मजोशी से अजित पवार का स्वागत किया लेकिन वास्तव में अजित के चेहरे पर शर्मिदगी के भाव थे। देवेंद्र फडणवीस विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे और बाद में उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया। 2019 के चुनाव में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का नेतृत्व किया था, और पार्टी में अपने से नाराज नेताओं पर पूरी तरह से नियंत्रण रखा। शिवसेना के साथ गठबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। और चुनाव परिणामों में उनकी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। लेकिन वह भी यह अनुमान लगाने में नाकाम रहे कि विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए जरूरी संख्या उनके पास नहीं थी। खासकर उस स्थिति में जब शिवसेना ने आधे कार्यकाल के लिए अपना मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग पर दबाव डालने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल अपने एकमात्र सदस्य से इस्तीफा करवा लिया था। भाजपा आला कमान ने फडणवीस से अजित पवार, जो एनसीपी के विधानसभा में नेता थे, को साधने को कहा। यह बेवकूफाना कदम था क्योंकि स्पष्ट हो चुका था कि मराठा सरदार भाजपा को सत्ता से दूर रखने का हवाला देकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को शिवसेना का साथ देने के लिए मना चुके थे। इसके बावजूद फडणवीस ने बेवकूफी की कि उन्होंने अजित पवार पर विश्वास किया कि वह जरूरी भर की टूट अपनी पार्टी में करवा लेंगे।
वह मान बैठे कि 20-30 एनसीपी विधायक मराठा सरदार के इस भतीजे के साथ आ जाएंगे। भाजपा आलाकमान, राज्यपाल, प्रधानमंत्री और आखिर में राष्ट्रपति तक इस बेवकूफाना प्रयास को नहीं भांप सके। शरद पवार ने शिवसेना (56), एनसीपी (54) तथा कांग्रेस (44) का एक मजबूत गठबंधन तैयार कर लिया है। कांग्रेस और एनसीपी एक ही विचारधारा की पार्टी हैं, क्योंकि एनसीपी का गठन शरद पवार ने कांग्रेस से निष्कासित किए जाने के बाद किया था। सोनिया गांधी के विदेशी मूल की होने का मुद्दा उठाने पर शरद पवार को कांग्रेस से निकाल दिया गया था। हालांकि उद्धव ठाकरे ने एकमत से महा विकास अघाड़ी का नेता चुने जाने के बाद कहा है कि वह सर्वसम्मति से सरकार चलाएंगे लेकिन अनेक मुद्दे हैं, जिन पर उनकी पार्टी और कांग्रेस तथा एनसीपी का एक साथ आना मुश्किल होगा। हिंदुत्व के प्रतीक विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न की मांग, सत्रहवीं सदी के आदिलशाही योद्धा अफजल खान, जो प्रतापगढ़ की पहाड़ियों में छत्रपति शिवाजी के हाथों मारा गया था, के मकबरे का जीर्णोद्धार, शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के संभाजी राव भिड़े, जो 2018 में भीमा-कोरेगांव में हिंसा फैलाने के अभियुक्त हैं, तथा मुस्लिम को आरक्षण की मांग जैसे मुद्दों पर तीनों साझीदार आमने-सामने आ सकते हैं। पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि भाजपा और संघ परिवार इन मुद्दों को आगे बढ़ाएंगे ताकि महा विकास अघाड़ी के बीच खाई पैदा हो।
बहुत कुछ नामित मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (जो आज पद की शपथ लेंगे) पर निर्भर करता है कि महा विकास अघाड़ी कैसे अपनी भूमिका निभाती है। उनके संगठन शिवसेना और सरकारी मशीनरी की सहिष्णुता, कूटनय और कुशलता की परीक्षा की घड़ी आ चुकी है। एनसीपी और कांग्रेस के अलावा, महा विकास अघाड़ी में माकपा, समाजवादी पार्टी, पिजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी, स्वाभिमानी शेतकरी संघटना और निर्दलीय भी शामिल हैं। हालांकि ये संगठन राजनीतिक रूप से मजबूत नहीं हैं, लेकिन वे ऐसे मुद्दे उठा सकते हैं, जिनसे ठाकरे सरकार की जान सांसत में आ जाए। महा विकास अघाड़ी के सभी घटकों ने एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम और सत्ता में भागीदारी फामरूला पर सहमति जताई है, लेकिन इस फार्मूला को क्रियान्वित करना आसान नहीं होगा। शिवसेना 124 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और इनमें 57 सीटों पर वह एनसीपी के सामने थी, जबकि अन्य घटक ज्यादातर कांग्रेस के खिलाफ लड़े थे। इसलिए नेतृत्व को इनके बीच एका बनाए रखने के लिए कसर नहीं छोड़नी होगी। स्थानीय निकाय चुनाव के दौरान इनके बीच टकराव पैदा हो सकता है।
इसलिए हमें इनसानी बेवकूफी को अनदेखा नहीं करना चाहिए। बहरहाल, महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से समूचे देश में भाजपा के साथ गठबंधन किए हुए क्षेत्रीय दलों की आकांक्षाओं में नये सिरे से हिलोरें उठने लगी हैं। संदेश साफ है-प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई के इस्तेमाल और दबाव बनाने की भाजपा आलाकमान कोशिशों को ज्यादा तरजीह देने की जरूरत नहीं है। अन्य राजनीतिक ताकतों खासकर कांग्रेस की मदद से भाजपा को शिकस्त दी जा सकती है। झारखंड चुनाव में भी क्षेत्रीय दलों में यह मानसिकता रंग दिखा सकती है।
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