हेग-फिर हमारे दलवीर
नीदरलैंड के हेग स्थित इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में भारत के न्यायमूर्ति दलवीर सिंह भंडारी का पुनर्निर्वाचन हमारी बड़ी कूटनीतिक व राजनयिक उपलब्धि है.
![]() न्यायमूर्ति दलवीर सिंह भंडारी (फाइल फोटो) |
न्यायमूर्ति भंडारी के निर्वाचन के जरिये उनके प्रतिद्वंद्वी ब्रिटेन ने 71 साल बाद ऐसा दुर्दिन देखा है कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की पन्द्रह सदस्यों की पीठ में उसका एक भी जज नहीं है. इससे उम्मीदें बलवती हो रही हैं कि संयुक्त राष्ट्र में अपेक्षित बदलाव ला जाया जा सकेगा, जहां उसे वीटो पॉवर वाले देशों के वर्चस्व और विकासशील देशों की अनसुनी से मुक्ति मिल जायेगी. लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार और उसके समर्थक इसका सारा श्रेय ‘अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर मोदी जी की सक्रियताओं’ या ‘संयुक्त राष्ट्र में वांछित सुधारों के नायक’ जैसी पैरवी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साठ टेलीफोन कॉलों को श्रेय दे रहे हैं.
यह तब है जब न्यायमूर्ति दलवीर ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में अपने पहले कार्यकाल में समुद्री विवाद, अंटार्कटिका में व्हेल पकड़ने, नरसंहार के अपराध, परमाणु निरस्त्रीकरण, आतंकवाद के वित्त पोषण और सार्वभौमिक अधिकारों का उल्लंघन आदि 11 मामलों में अपने निर्णय दिये. कुछ समय पहले इस न्यायालय ने पाकिस्तान द्वारा भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव की फांसी पर रोक लगाई तो जजों के उस पैनल में न्यायमूर्ति भंडारी भी थे. इन सरकारवादियों को कौन याद दिलाये कि पूर्ववर्ती डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने जनवरी, 2012 में न्यायमूर्ति भंडारी को उम्मीदवार नामित किया था. तब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में जॉर्डन के जज न्यायमूर्ति एवन शॉकत अल-खसवनेह के इस्तीफे से रिक्त पद के लिए 27 अप्रैल, 2012 को हुए चुनाव में भंडारी ने अपने प्रतिद्वंद्वी फिलिपींस के फ्लोरेंटीनो फेलिसियानो के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र महासभा में 58 के विरु द्ध 122 वोट प्राप्त किये थे. तब किसी ने भी उनकी जीत को सरकारवाद से नहीं जोड़ा था. इससे पहले 1988-90 में भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएस पाठक को इस पद पर नियुक्त किया गया था, तब भी नहीं.
यह समझना मुश्किल नहीं कि इस बार सारी उपलब्धि को सरकार के खाते में ही क्यों डाला जा रहा या उसे बेवजह का राष्ट्रवादी रंग क्यों दिया जा रहा है? दरअसल, ब्रिटेन के ‘राष्ट्रवादी’ भी अपने प्रत्याशी को वापस लेने के अपनी सरकार के फैसले की लगभग ऐसे ही आधारों पर आलोचना कर रहे हैं. ‘द गार्जियन’ जैसे प्रतिष्ठित अखबार ने इसे ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन की प्रतिष्ठा को झटका’ बताया है. इसलिए कि प्रारंभ में ब्रिटेन द्वारा इस सिलसिले में सुरक्षा परिषद को संयुक्त सम्मेलन के लिए राजी करने की कोशिशें भी नाकाम हो गई. वहां याद दिलाया जा रहा है कि 96 साल पहले इसी तरह की स्थिति में ब्रिटेन की जुगत काम आ गयी थी. जैसे हमारे वैसे ही ब्रिटेन के ‘राष्ट्रवादी’ भी याद नहीं रख पा रहे कि तब वह औपनिवेशिक शासक था और उसकी मर्जी चल गई. इस बार सुरक्षा परिषद के बाकी सदस्यों को सही अनुमान था कि बहुमत के खिलाफ जाना उनके लिए ठीक नहीं होगा.
हां, न्यायमूर्ति भंडारी का निर्वाचन आसान नहीं था. उन्हें ब्रिटेन के उम्मीदवार क्रिस्टोफर ग्रीनवुड से कड़ी टक्कर मिल रही थी. जीत के लिए उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद का बहुमत जरूरी था. उनको महासभा का समर्थन मिल रहा था, जबकि सुरक्षा परिषद का रु झान ग्रीनवुड की ओर था. सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्य-रूस, अमेरिका, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन ग्रीनवुड की ही जय चाहते थे. उन्हें अंदेशा था कि वीटोविहीन भारत के प्रत्याशी के उनके प्रत्याशी पर भारी पड़ जाने से भविष्य में उनकी अंतरराष्ट्रीय प्रभुसत्ता को चुनौती मिल सकती है. लेकिन ऐसा होकर रहा क्योंकि वे संयुक्त राष्ट्र के दोनों सदनों का संयुक्त सम्मेलन बुलाने जैसा कोई प्रस्ताव इस डर से नहीं ला पाये कि तब सुरक्षा परिषद के सदस्यों को खुले तौर पर अपना वोट देना पड़ता.
इससे यह जाहिर हो जाता कि कौन सा देश भारत का मित्र होने का दावा करने के बावजूद उसके खिलाफ वोट दे रहा है. सुरक्षा परिषद का कोई भी देश इसमें खुद को असहज स्थिति में पाता. यों ब्रिटेन के स्वेच्छा से मैदान छोड़ देने के सारे कारण कूटनीतिक ही नहीं, व्यापारिक भी हैं. ब्रेक्जिट के बाद भारत व्यापार में उसका बड़ा साझीदार बनकर उभरा है. इसलिए वह भारत के साथ गलत चालें नहीं चल सकता. लेकिन अमेरिका ने जस्टिस दलवीर को बधाई देते हुए कहा कि वह सुरक्षा परिषद की वर्तमान वीटो व्यवस्था में किसी भी बदलाव के खिलाफ है और उसके मामूली विस्तार का ही समर्थन करता है.
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