प्राथमिक स्वास्थ्य : समस्या जानना जरूरी
अगस्त, 2017 में प्रिंट और ब्रॉडकास्ट मीडिया पर गोरखपुर में बच्चों की मौतों की खबरों ने सभी को व्यथित कर दिया था.
प्राथमिक स्वास्थ्य : समस्या जानना जरूरी |
उसके बाद से गोरखपुर और देश के अन्य स्थानों पर इसी तरह से बच्चों की मौतों की अनेक घटनाएं हो चुकी हैं. अब हालत है कि ऐसी किसी खबर से किसी को सिहरन नहीं होती. गोरखपुर में हुई मौतों ने एक तरह से ऐसी घटनाओं के प्रति एक तरह की असंवेदनशीलता पैदा कर दी है.
भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र त्रासदियों और विफलताओं से सबक नहीं लेने के लिए जाना जाता है. ऐसी किसी भी घटना पर पहले तो हड़कंप मचता है, फिर थोड़े समय बाद सब कुछ भुला दिया जाता है. यदि हम बैठकर जरा सोचें तो यकीनन भारत में गोरखपुर जैसे अस्पतालों में किए जा सकने वाले संभावित उपायों और तत्संबंधी कार्रवाइयों का खाका तैयार कर सकते हैं. यह भी जरूरी नहीं है कि ये उपाय संसाधनोन्मुख ही हों. बेहद साधारण और हालात को बेहतर करने वाले भी हो सकते हैं.
सबसे पहले तो यह करना होगा कि सुविधा मुहैया कराने के स्तर पर अस्वस्थता के कारणों और मौतों का विश्लेषण करने की क्षमता विकसित की जाए. ऐसे मामलों का समुचित दस्तावेजीकरण हो. विश्व स्वास्थ्य संगठन के वाषिर्क स्वास्थ्य संबंधी 2017 के आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में भारत में सभी मृत्युओं में से मात्र 10 प्रतिशत मौतों के कारण ही पता चल पाए जबकि विश्व के लिए यह औसत 48 प्रतिशत रहा. चीन में होने वाली मौतों की 90 प्रतिशत मौतों के कारणों का दस्तावेजीकरण किया जाता है. क्या ऐसा ही गोरखपुर में आगामी छह महीनों के भीतर बीआरडी अस्पताल में किया जा सकता है. क्या कोई तरीका विकसित किया जा सकता है, जिससे ऐसी तरतीबवार दस्तावेजी जानकारी का कारगर तरीके से इस्तेमाल किया जा सके.
सीधा सा जवाब है-हां. और इस दिशा में अगस्त, 2017 में घटी घटना मील का पत्थर साबित हो सकती है. और अगले बारह महीनों में इस तरीके को भारत के तमाम मेडिकल कॉलेजों और जिला अस्पतालों में लागू किया जा सकता है. इस प्रकार मौतों और रोग संबंधी जानकारियों के दस्तावेजीकरण से स्वास्थ्य सेवाओं को नये सिरे से तरतीब देने में सहायता मिल सकती है. न केवल इतना बल्कि तमाम संसाधनों (मानव संसाधन, वित्तीय, दवा एवं आपूर्ति आदि) के अच्छे से इस्तेमाल करने में भी मदद मिल सकती है. तत्काल जिन क्षेत्रों पर ध्यान दिया जाना चाहिए वे इस प्रकार से हैं:
महामारी विज्ञान को समझा जाए : यह साबित हो चुका है कि रोगों से होने वाली मौतों का 50 प्रतिशत अनेकानेक सामाजिक कारणों से होती हैं. इसलिए जरूरी है कि समुदाय से जुड़ी मौतों के संबंध को समझा जाए. ये रोगी अस्पताले पहुंचने से पूर्व कहां थे? यह जाना जाए. जिन क्षेत्रों से वे आए हैं, वहां स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता का पता लगाया जाए. इन परिवारों की स्वास्थ्य देखभाल के प्रति सोच को जाना जाए. जहां ये परिवार रहते हैं, वहां के सामाजिक-आर्थिक वातावरण को समझा जाए. यह भी जानने की कोशिश की जाए कि इन लोगों ने अस्पताल पहुंचने में विलंब क्यों किया और पहले पहल वे किनके पास पहुंचे. इसके लिए समुदाय चिकित्सा विभाग (मेडिकल कॉलेज के स्तर पर) की सक्रियता जरूरी है.
साथ ही, जिला अस्पतालों में महामारियों से निबटने के लिए प्रशिक्षित स्टाफ भी होना जरूरी है. प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और निर्दिष्ट करने वाली संबद्धता की मजबूती : विशेष किस्म की स्वास्थ्य देखभाल के लिए बड़े स्तर पर सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं. यदि इन पर सामान्य बीमारियों से ग्रस्त रोगियों का बोझ लाद दिया गया तो विशेष किस्म की बीमारियों से पार पाने में दिक्कत होगी. भारत प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं करीब-करीब अपर्याप्त हैं, और वहां के लोगों को भी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जिला अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों पर निर्भर रहना पड़ता है.
यही कारण है कि भारत सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट का 70 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय करने की बात कही गई है. यदि एम्स जैसे संस्थान या किसी मेडिकल की स्थापना पर एक रुपया व्यय किया जाता है, तो प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र के लिए दो रुपये व्यय किए जाने चाहिए. उप-स्वास्थ्य केंद्र से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से उप-जिला अस्पताल से जिला अस्पताल की एक पूरी स्वास्थ्य श्रृंखला बनाई जानी चाहिए. श्रीलंका और थाईलैंड जैसे अनेक देश इस दिशा में सफलतापूर्वक कार्य कर चुके हैं.
ज्यादा वित्तीय संसाधन जुटाए जाएं : भले ही सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र की बाबत तमात दावे करती हो लेकिन तथ्य यह है कि जरूरत से कम संसाधन इस क्षेत्र को मुहैया कराए जा रहे हैं. जिन राज्यों में ज्यादा व्यय होना चाहिए वे उतना व्यय नहीं करते. उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य व्यय 2014-15 में 635 रुपये खर्च किए गए. यह केरल में उस वर्ष व्यय किए गए आंकड़े का करीब 40 प्रतिशत ही है. भारत के लिए आदर्श माने गए व्यय का यह छठवां हिस्सा है. इसलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय बढ़ाया जाना बुनियादी शर्त है.
निशुल्क दवा और निदान के प्रावधान की गारंटी आवश्यक : अनेक राज्यों में दवाओं और निदान की सेवाएं निशुल्क व्यवस्था है. लेकिन सच्चाई यह है कि जरूरतमंदों को यह सुविधा नहीं मिल पाती. इसके कारण अनेक हैं. केंद्रीय नैदानिक प्रयोगशालाओं में स्टाफ की कमी है. हालांकि वहां कीमती उपकरण मौजूद हैं. फिर, इन प्रयोगशालाओं द्वारा दी गई रिपोटरे पर डॉक्टर सहज विश्वास भी नहीं करते.
बहरहाल, किसी समस्या के समाधान के लिए जरूरी उसका स्वरूप जान लेना होता है. भारतीय अस्पतालों में होने वाली मौतों में अधिकांश को टाला जा सकता है. लेकिन जरूरी है कि ऐसी घटनाओं से सबक लेने की मानसिकता बना ली जाए.
| Tweet |