संस्कृति का भी पर्यावरण

Last Updated 15 Apr 2017 05:44:35 AM IST

डॉ अम्बेडकर लिखते हैं, ‘कोई आततयी बहुमत राष्ट्र के नाम पर बोलता है तो मैं उसका समर्थन नहीं करूंगा. किसी पार्टी का भी समर्थन सिर्फ इसीलिए नहीं करूंगा कि वह पार्टी राष्ट्र के नाम पर बोल रही है.’


संस्कृति का भी पर्यावरण (फाइल फोटो)

राष्ट्र, धर्म और संस्कृति के नाम पर बोलना एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है ताकि कुछ बुनियादी सच को दबाया जा सके. संस्कृति के नाम पर श्री श्री रविशंकर ने 2016 के मार्च महीने में यमुना के तट पर अपनी संस्था आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन की ओर से तीन दिनों का वैिक सांस्कृतिक उत्सव किया था. तब लोगों ने ये बड़े स्तर पर ये चिंता जाहिर की थी कि यमुना के किनारे इस क्षेत्र में इस तरह का आयोजन पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदेह साबित होगा. लेकिन बड़े स्तर पर चिंता जाहिर करने के बाद भी दुनिया भर में बड़े और संपन्न लोगों के बीच जीने की कला सिखाने वाले श्री श्री रविशंकर ने अपने सांस्कृतिक उत्सव को अंजाम दिया. बावजूद इसके कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने उन्हें पर्यावरण को नुकसान की भरपायी के लिए पहले पांच करोड़ रुपये जमा कराएं थे. लेकिन यह प्राधिकरण का संस्कृति उत्सव को नहीं रोक पाने की अक्षमता का भी प्रदर्शन था. तब एनजीटी ने इस उत्सव से पर्यावरण को होने वाले नुकसान की जांच के लिए विशेषज्ञों की एक कमेटी बना दी थी, जिसकी रिपोर्ट के मुख्य हिस्से मीडिया के जरिये सार्वजनिक हुए हैं.

विशेषज्ञों की यह रिपोर्ट बताती है कि श्री श्री रविशंकर का मार्च 2016 में वैिक सांस्कृतिक उत्सव घोर अवैज्ञानिक तरीके से किया गया और गलत था. उससे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान हुआ है कि उसकी भरपायी अगले दस वर्षो में भी संभव नहीं है. 2016 में ही प्राधिकरण ने यह मान लिया था कि आयोजन स्थल पर कुछ नुकसान ऐसे हुए हैं, जो स्थायी है. यानी उनकी भरपायी संभव नहीं है. लेकिन जिस तरह के नुकसान का रकम के रूप में आकलन विशेषक्ष समिति कर सकती थी, उस आकलन के अनुसार कम से कम एक सौ बीस करोड़ रुपये भरपायी करने में लग सकते हैं. मजे की बात है कि हरित प्राधिकरण की आपत्तियों के बावजूद श्री श्री रविशंकर के सांस्कृतिक प्रभाव ने रंग दिखाया और उत्सव में एक तरफ तो प्रधान मंत्री भी आए और दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी की सरकार के मंत्री भी उसमें शामिल हुए. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है और विशेषज्ञों की समिति की रिपोर्ट के आने बाद उस सरकार ने उसे खारिज कर दिया और श्री श्री रविशंकर से कहा कि वे यमुना के तट पर दोबारा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करें. जाहिर सी बात है कि पर्यावरण के हित में विशेषज्ञों की इस रिपोर्ट को लेकर नुक्ताचीनी पेश की जाएंगी. श्री श्री रविशंकर की सांस्कृतिक फौज ने इस रिपोर्ट को ही अवैज्ञानिक कहा है.



संस्कृति का नाम लेकर जब कोई भी बात करता है कि उसका एक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आधार होता है. श्री श्री रविशंकर की संस्कृति का आधार भारतीय जन की संस्कृति नहीं है. यह वह संस्कृति है जिसकी खुद के द्वारा व्याख्या की गई है और उसे आम संस्कृति के रूप में स्थापित करने के लिए सत्ता संपन्न वर्ग को साथ साथ सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया जाता है. संस्कृति के अर्थ व्यापक होते है. लेकिन कोई उसे धर्म के रूप में पेश कर देता है तो कोई कर्मकांडों को संस्कृति का नाम दे देता है. पर्यावरण संस्कृति से गुंथा हुआ है. पर्यावरण को किसी खास तरह के धर्म और संस्कृति से जोड़कर प्रस्तुत किया जाता है तो उसका उद्देश्य संस्कृति के नाम पर एक ऐसे केन्द्र का निर्माण करने की कोशिश होती है जिस पर उसकी सत्ता कायम हो सके. श्री श्री रविशंकर ने वैिक सांस्कृतिक आयोजन के लिए कई तरह की तकलीफों को झेलती यमुना के उस हिस्से को चुना जिसके कमजोर हो जाने के कारण पहले से ही आम समाज को कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है. कोई भी आक्रमक विकास एक नई संस्कृति को जन्म देता है और उसके लिए जन की सांस्कृतिक विरासत बाधा होती है. श्री श्री रविशंकर की संस्कृति का मौजूदा विकास की आक्रमक शैली से रिश्ता है. उसमें जन की भागीदारी और जन की भागीदारी से आयोजन के लिए विचार विमर्श की गुंजाइश ही नहीं होती है. जैसे-जैसे बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की रूप रेखा तैयार करने में आम जन की भागीदारी और उसकी सांस्कृतिक विरासत और सामुदायिक चेतना की कोऊ जगह नहीं होती है.

जिस तरह से पर्यावरण यानी आबो हवा और वातावरण जिंदा समाज के लिए कमजोर दिखने लगा है उससे यह स्पष्ट हो रहा है कि भविष्य में पर्यावरण राजनीतिक मुद्दों के केन्द्र में रहेगी. श्री श्री रविशंकर के उत्सव पर पर्यावरण की आपत्ति का एक खास संदेश है. हम अक्सर देखते हैं कि बड़े बड़े कल-कारखानें, इमारतें आदि की  परियोजनाओं को लागू करने वाले लोगों को पर्यावरण की चिंता उस तरह से नहीं होती है जो आम लोगों को होती है. आम लोगों का किसी जगह से सदियों का रिश्ता होता है और घरों, मुहल्लों, गांव की जगह पर उन्हें कारखाने, इमारतों, बड़े बांधों आदि के रूप में एक नया ढांचा घेरता है. जाहिर सी बात है कि ये सब उसके पूरे व्यक्तिगत और सामूहिक-सामाजिक जीवन को पूरी तरह से बदल देता है. इस स्थिति में लोग अपनी चेतना से विरोध करते हैं. लेकिन पर्यावरण को लेकर जुड़ी यह चेतना तब बिखरने  लगती है, जब पर्यावरण को संस्कृति और धर्म के नाम नुकसान पहुंचाने की कोशिश होती है. पर्यावरण की चेतना में जीने वाला समाज संस्कृति और धर्म से पर्यावरण को अलग करके नहीं जीता है.

श्री श्री रविशंकर जैसे लोगों का कार्यक्रम पर्यावरण की इसी विराट चेतना को खंडित करता है. यह कहा जा सकता है कि विकास की नई अवधारणा के अगुवा इसी तरह की संस्कृति का और सांस्कृतिक आयोजन करते रहे हैं. श्री श्री रविशंकर समाज के संपन्न हिस्से के लिए आर्ट ऑफ लिविंग के विशेषज्ञ तो हो सकते हैं, लेकिन वे पर्यावरण विशेषज्ञ होने का दावा नहीं कर सकते हैं. पर्यावरण का रिश्ता सामान्य जन से होता है और उसकी कल्पना में अपने लिए दूसरी जगह बनाना नहीं होता है, बल्कि वह जहां रहता, खाता-पीता, सोता और विभिन्न स्तरों पर संबंधों में जीता है, उसी जगह को सुंदर-स्वस्थ बनाने की कोशिश करता है. श्रीश्री की संस्कृति का पर्यावरण और आम जन के पर्यावरण की संस्कृति जीने की दो भिन्न दिशाएं हैं. 

अनिल चमड़िया


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